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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 329 / सकलजगत्स्वरूपो वा परमाणुरिति भेदाभेदैकांतवादिनोरुपलंभः स्याद्वादिनस्तथानभ्युपगमात् / कार्यकारणभावस्य हि संबंधस्याबाधिततथाविधप्रत्ययारूढस्य स्वसंबंधिनो वृत्तिः कथंचित्तादात्म्यमेवानेकांतवादिनोच्यते / स्वाकारेषु ज्ञानवृत्तिवत् कुतोनेकसंबंधितादात्म्ये कार्यकारणभावस्य संबंधस्यैकत्वं न विरुध्यते इति चेत्, नानाकारतादात्म्ये ज्ञानस्यैकत्वं कुतो न विरुध्यते ? तदशक्यविवेचनत्वादिति चेत् तत एवान्यत्रापि कार्यकारणयोर्हि द्रव्यरूपतयैकत्वात् कार्यकारणभावस्यैकत्वमुच्यते न च तस्य शब्दे विवेचनत्वं मृद्रव्यात् कुशूलघटयोर्हेतुफलभावेनोपगतयोर्द्रव्यांतरं नेतुमशक्तेः / क्रमभुवोः पर्याययोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरुपादानोपादेयत्वस्य वचनात् / न चैवंविधः कार्यकारणभावः सिद्धांतविरुद्धः सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं यत् उत्तर : इस प्रकार भेद एकान्त और अभेद एकान्त वादियों के द्वारा कथित उपलंभ (उलाहना) स्याद्वादियों के प्रति लागू नहीं हो सकता। क्योंकि स्याद्वादियों ने इस प्रकार का एकान्त स्वीकार नहीं किया है। स्याद्वाद सिद्धान्त के निर्बाध ज्ञान में आरूढ़ कार्य-कारण भाव नामक सम्बन्ध की अपने प्रतियोगी, अनुयोगी रूप सम्बन्धियों में कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध रूप ही वृत्ति स्वीकृत है। जैसे कि बौद्धों के द्वारा स्वीकृत ज्ञान की स्वकीय आकारों में कथञ्चित् तादात्म्य वृत्ति है। ऐसा कहा जाता है अर्थात् जैसे ज्ञान एक होकर भी अनेक आकारों में रहता है वैसे ही एक सम्बन्ध कथञ्चित् अनेक सम्बन्धियों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध से रहता है। अनेक सम्बन्धियों के साथ तादात्म्य होने पर कार्य-कारण भाव सम्बन्ध का एकत्व विरुद्ध कैसे नहीं है ? ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्ध सिद्धान्त में एक ज्ञान अनेक आकारों में विरुद्ध कैसे नहीं है ? “एक ज्ञान का अनेक आकारों से पृथक् विवेचन करना शक्य नहीं है। इसलिए एक ज्ञान अनेक आकारों के साथ सम्बन्ध रखता है"। बौद्ध के इस प्रकार कहने पर, जैनाचार्य कहते हैं कि यह कथन तो अन्यत्र (कार्य कारण भाव में) भी कहा जा सकता है कि एक कार्य कारण भाव सम्बन्ध का दो आदि सम्बन्धियों में से पृथक् करना अशक्य है। कार्य और कारण के नियम से द्रव्यरूपपने से एक होने के कारण कार्य-कारण भाव सम्बन्ध का एकपना कहा गया है। उस सम्बन्ध का शब्द के निमित्त से (शब्द के द्वारा) पृथक् करण नहीं होता है। क्योंकि द्रव्यत्व सामान्य की अपेक्षा वे दोनों एक हैं। जैसे हेतु (कारण) और फल (कार्य) भाव को प्राप्त कुशूल (घट की पूर्ववर्ती पर्याय) और घट को मिट्टीद्रव्य से पृथक् करना शक्य नहीं है। अर्थात् कारण और कार्य (कुशूल और घट) दोनों ही मिट्टी द्रव्य रूप ही हैं क्योंकि क्रम से होने वाली पर्यायों में एक द्रव्य की प्रत्यासत्ति होने से उपादान का कथन किया गया है अर्थात् एक ही द्रव्य की पूर्व समयवर्ती पर्याय उपादान कारण है, और उत्तर सयमवर्ती पर्याय उपादेय कार्य है। इस प्रकार कारण कार्य (उपादान-उपादेय) भाव एक द्रव्य में होना सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है क्योंकि, एक द्रव्य की पर्याय होने से उपादेय कार्य की उपादान कारण के साथ एक द्रव्य प्रत्यासत्ति है। यह द्रव्य प्रत्यासत्ति सम्बन्धी कार्य-कारण भाव का कथन हुआ।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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