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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 328 क्षणिकैकांतवद्वा विशेषासंभवात् / ननु च सदपि कार्यत्वं कारणत्वं वा वस्तुत्वस्वरूपं न संबंधोऽद्विष्ठत्वात्। कार्यत्वं कारणे हि न वर्तते कारणत्वं वा कार्ये येन द्विष्ठं भवेत् / कार्यकारणभावस्तयोरेको वर्तमानः संबंध इति चेन्न, तस्य कार्यकारणाभ्यां भिन्नस्याप्रतीते : / सतोपि प्रत्येकपरिसमाप्त्या तत्र वृत्तौ तस्यानेकत्वापत्तेः। एकदेशेन वृत्तौ सावयवत्वानुषक्तेः स्वावयवेष्वपि वृत्तौ प्रकृतपर्यनुयोगस्य तदवस्थत्वादनवस्थानावतारात् / कार्यकारणांतराले तस्योपलंभप्रसंगाच्च ताभ्यां तस्याभेदेपि कथमेकत्वं भिन्नाभ्यामभिन्नस्याभिन्नत्वविरोधात्। स्वयमभिन्नस्यापि भिन्नार्थस्तादात्म्ये परमाणोरेकस्य सकलार्थेस्तादात्म्यप्रसंगादेकपरमाणुमात्रं जगत्स्यात् सर्वथा अकार्य-कारण के वस्तुपना असिद्ध है। जैसे सांख्य के द्वारा स्वीकृत कूटस्थ नित्य आत्मा, अथवा बौद्धों के द्वारा माना गया वस्तु का क्षणिकत्व सिद्ध नहीं है एकान्त अवस्तु है क्योंकि अर्थ क्रियाकाअभाव होने से कूटस्थ नित्य और क्षणिक एकान्त में विशेषता की असंभवता है अर्थात् जो किसी का कारण वा कार्य नहीं है वह परमार्थ रूप पदार्थ नहीं है। शंका : कार्यत्व और कारणत्व के सद्भूत होते हुए भी सम्बन्ध के द्विष्ठ होने से सम्बन्ध वस्तुस्वरूप नहीं है। अर्थात् सम्बन्ध दो वस्तु में रहता है, परन्तु कार्य-कारण भाव दो में नहीं रहता है। अत: कार्य कारण सम्बन्ध वास्तविक नहीं है क्योंकि, कारण में कार्यत्व और कार्य में कारणत्व नहीं रहता है जिससे कि वह दोनों में रह सकता हो। “दो में रहने वाला एक कार्य-कारण भाव है" ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि कार्य कारण से भिन्न उस कार्य कारण भाव की प्रतीति नहीं होती है। तथा कार्य कारण भाव को सद्रूप मान लिया जाए तो भी उस कार्य कारण भाव सम्बन्धी कार्य और कारणों में प्रत्येक में परिपूर्ण रूप से वृत्ति माननी पड़ेगी ? तबतो वह सम्बन्ध अनेकपन को प्राप्त हो जाएगा अर्थात् जो पदार्थ एक ही समय अपने पूरे शरीर से दो में रहता है, वह एक नहीं है वस्तुत: वे दो हैं। यदि उस एक सम्बन्ध को कुछ एकदेश से कारण में और एकदेश से कार्य में रहने वाला मानेंगे तो सम्बन्ध में सावयव का प्रसंग आयेगा। क्योंकि जो सावयवी होता है वही एक-एक भाग से अनेक में स्थित रह सकता है और एकदेश स्वरूप अपने अवयवों में भी अवयवी की एकदेश से ही वृत्ति मानी जायेगी तो फिर प्रकरण प्राप्त प्रश्न उठाना वैसे का वैसा ही अवस्थित रहेगा अतः अनवस्था दोष आएगा। __ अथवा कार्य कारण भाव के मध्य में रहने वाले उस कार्य कारण भाव के उपलंभ होने का प्रसंग आयेगा अर्थात् जैसे दो कपड़ों के जोड़ (सम्बन्ध) में डोरा दृष्टिगोचर होता है, परन्तु धूम और अग्नि के मध्य में रहने वाला कार्य-कारण भाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। कार्य-कारण में सम्बन्ध का अभेद मानने पर भी वह सम्बन्ध एक कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो दो भिन्न पदार्थों से अभिन्न है, उसको एकपन का विरोध है स्वयं अभिन्न पदार्थ का यदि भिन्न अर्थों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध माना जाएगा तो एक परमाणु के भी सम्पूर्ण पदार्थों के साथ तादात्म्य होने का प्रसंग आएगा और ऐसा होने पर सर्व जगत् परमाणु मात्र हो जाएगा अर्थात् एक परमाणु ही सर्व जगत् स्वरूप हो जाता है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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