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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 327 चेत् , कारणत्वं कार्यत्वं वा तत्र तेषां न प्रतिभातीति कोशपानं विधेयं / अस्मदादीनां तु तदप्रतिभासनं तथा निश्चयानुपपत्तेः क्षणक्षयादिवत् / तथोभयत्र समानं / यथैव हि तद्भावभावित्वानध्यवसायिनां न क्वचित्कार्यत्वकारणत्वनिश्चयोस्ति तथा स्वयमतद्भावभावित्वव्यवसायिनामकार्यकारणत्वनिश्चयोपि प्रतिनियतसामग्री सापेक्षकत्वाद्वस्तुधर्मनिश्चयस्य / न हि सर्वत्र समानसामग्रीप्रभावो निर्णयस्तस्यान्तरङ्ग बहिरङ्ग सामग्री वैचित्र्यदर्शनात् / धूमादिज्ञानसामग्रीमात्रात्तत्कार्यत्वादिनिश्चयानुत्पत्तेः न कार्यत्वादि धूमादिस्वरूपमिति चेत् तर्हि क्षणिकत्वादिरपि तत्स्वरूपं माभूत्तत एव क्षणिकत्वाभावे वस्तुत्वमेव न स्यादिति चेत् कार्यत्वकारणत्वाभावेपि कुतो वस्तुत्वं खरशृंगवत् / सर्वथाप्यकार्यकारणस्य वस्तुत्वानुपपत्तेः कूटस्थवत् / अग्नि और धूम में कारण कार्यता का प्रतिभास (ज्ञान) नहीं प्रतिभासित होता है," इस विषय में क्या सौगत ने सौगन्ध खाई है ? अर्थात् अकारण कार्यता के समान अतिशय ज्ञानी जनों को कारण कार्यता का ज्ञान भी होना चाहिए। परन्तु हमारे सरीखे साधारण लोगों को उस प्रकार का निश्चय न होने के कारण इनका प्रतिभास नहीं होता है। जैसे स्वलक्षण का प्रत्यक्ष हो जाने पर भी उसके अभिन्न स्वभाव क्षणिकत्व का निश्चय न होने से प्रत्यक्ष द्वारा उल्लेखनीय ज्ञान नहीं होता है अत: इस प्रकार अकार्य-कारण और कार्य-कारण भाव का हमारे सरीखे साधारण जीवों को ज्ञान नहीं होना दोनों में एक समान है। __जैसे कहीं पर (किसी स्थल में) जिसके होने पर ही होने का निर्णय कराने वालों को किसी पदार्थ में कार्य कारण भाव का निश्चय नहीं होता है, उसी प्रकार जिसके नहीं होने पर नहीं होने का निर्णय कराने वालों के अकारण और अकार्य का निश्चय भी किसी आत्मा, आकाश आदि में नहीं हो पाता है। धर्मी के देखने पर शीघ्र धर्म का निर्णय हो जाए, ऐसा नियम नहीं है क्योंकि वस्तु के धर्मों का निश्चय होना प्रत्येक नियत सामग्री की अपेक्षा रखने वाला है। सर्वत्र धर्मी और धर्मों की सदृश सामग्री से ही निर्णय उत्पन्न नहीं होता है क्योंकि उसके निर्णय में बहिरंग और अंतरंग सामग्री की विचित्रता देखी जाती है। (अर्थात् क्वचित् धर्मी का ज्ञान होने पर उसके धर्मों (स्वभावों) का ज्ञान नहीं होता है। जैसे आत्मा-रूपी धर्मी का ज्ञान हो जाने पर भी उसके अनन्त धर्मों का ज्ञान नहीं होता है। क्वचित् धर्मों का ज्ञान होकर भी धर्मी का विशद ज्ञान नहीं हो पाता है जैसे आकाश के अवकाश देना आदि धर्मों का ज्ञान होने पर भी धर्मी आकाश का ज्ञान नहीं होता है।) _ “धूम आदि के ज्ञानों की सामान्य सामग्री मात्र से उनके कार्य और कारणत्व का निश्चय नहीं होता है अत: कार्यत्व कारणत्व आदि धूम आदि के स्वरूप नहीं हैं, स्वभाव नहीं हैं।" इस प्रकार बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो उन नील आदिक स्वलक्षणों के भी क्षणिकत्व, सूक्ष्मत्व आदि स्वरूप नहीं हो सकेंगे। क्योंकि सौगत में श्रद्धान करने वालों ने स्वलक्षण को जानने वाले निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा क्षणिकत्व आदि का निश्चय होना स्वीकार नहीं किया है। यदि बौद्ध कहे कि क्षणिकत्व के अभाव में वस्तुत्व ही नहीं रहता है तब तो कार्य, कारणत्व के अभाव में भी गधे के सींग के समान वस्तुत्व कैसे रह सकता है ? अर्थात् कार्य-कारण के अभाव में जैसे गधे के सींग का अस्तित्व नहीं रहता है उसी प्रकार कार्य-कारण के अभाव में वस्तुत्व भी नहीं रह सकता।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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