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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 326 कार्यकारणभावोऽकार्यकारणभाववत्। केवलं तद्व्यवहारो विकल्पशब्दलक्षणो विकल्पनिर्मित इति किमनिष्टं / वस्तुरूपयोरपि कार्यकारणभावे तयोरभावो वस्तुत्वेति न तु युक्तं, व्याघातात् क्वचिन्नीलेतरत्वाभाववत् / ततो यदि कुतश्चित्प्रमाणात् कार्यकारणभावः परमार्थतः केषांचिदर्थानां सिध्येत् तदा तत एव कार्यकारणभावोपि प्रतीतेरविशेषात्तथैव हि गवादीनामसाध्यसाधनभावः परस्परमतद्भावभावित्वप्रतीतेर्व्यवंतिष्ठते / तथाग्निधूमादीनां साध्यसाधनभावोपि तद्भावभावित्वप्रतीतेर्बाधकाभावात् / नन्वकस्मादग्निं धूमं वा केवलं पश्यतः कारणत्वं कार्यत्वं वा किं न प्रतिभातीतिचेत् किं पुनरकारणत्वमकार्यत्वं वा प्रतिभाति / सातिशयसंविदां प्रतिभात्येवेति व्यवहार कल्पित है। बौद्ध के इस कथन पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो अकार्य-कारण भाव के समान कार्य-कारण भाव वास्तविक सिद्ध हो जाता है। केवल उनका विकल्प शब्द लक्षण व्यवहार सत्य कल्पनाओं के विकल्प से निर्मित है। ऐसा मानना अनिष्ट क्यों है ? भावार्थ : कार्य कारण भाव और अकार्य कारण भाव ये दोनों ही वस्तु के स्वभाव हैं। जैसें आत्मा और आकाश का अकार्य और अकारण भाव इन दोनों का स्वभावभूत तथा ज्ञान और आत्मा का कार्य। कारण भाव भी आत्मा और ज्ञान का स्वभाव है। ऐसे निज स्वभाव में वस्तु व्यवस्थित है। संसार में स्वभाव और स्वभाववान के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है। वस्तुभूत पदार्थों का कार्य कारण स्वभाव मानते हुए भी कार्य-कारण भाव का अभाव कहना और उस कार्य कारण भाव के अभाव को वस्तु कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि, इस कथन में व्याघात दोष आता है अर्थात् ये दोनों वाक्य परस्पर विरोधी हैं। जैसे किसी पदार्थ में नील से भिन्नपना स्वीकार करके पुनः नीलेतर का अभाव कहना व्याघात दोष से युक्त है। यदि किसी भी प्रमाण से किन्हीं अर्थों का परमार्थ रूप से अकार्य कारण भाव सिद्ध करते हो तो उसी कारण से कार्य-कारण भाव भी सिद्ध हो जायेगा। क्योंकि प्रतीति में दोनों में कोई अन्तर नहीं है। जिस प्रकार गौ, भैंस आदि की परस्पर में अन्वय-व्यतिरेक से होने और न होने की प्रतीति न होने के कारण असाध्य साधनपना व्यवस्थित है, उसी प्रकार अग्नि, धूम, कृतकत्व, अनित्यत्व आदि का भी उसके होने से होना प्रतीत होने से साध्य साधन भाव व्यवस्थित हो जाता है अत: इस भाव भावित्व प्रतीति में बाधक का अभाव है अर्थात् ज्ञाप्य, ज्ञापक और कार्य कारण भाव को प्राप्त पदार्थों में साध्य, साधनत्व प्रमाणों के द्वारा सिद्ध है। प्रश्न : अकस्मात् केवल धूम या केवल अग्नि को देखने वाले पुरुष के अग्नि में कारणत्व और धूम में कार्यत्व का प्रतिभास क्यों नही होता है ? उत्तर : जैनाचार्य कहते हैं कि अग्नि में अकारणता तथा धूम में अकार्यता का क्या ज्ञान हो जाता है? अकारण-कार्य भाव ज्ञात हो जाता है ? बौद्ध कहता है कि सातिशय ज्ञानी जनों को अकारणता का और अकार्य का प्रतिभास होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने पर तो “सातिशय ज्ञानी जनों को
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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