________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 318 स चेष्टो नाममात्रे विवादाद्वस्तुन्यविवादादितिचेत् / कः पुनः संबंधमस्वलक्षणमाहतस्यापि स्वेन रूपेण लक्ष्यमाणस्य स्वलक्षणत्वात् / ननु कुत: संबंधस्तथा द्वयोः संबंधिनोः सिद्धः ? एकेन गुणाख्येन संयोगेनान्येन वा धर्मेणांतरस्थितेनावाच्येन वा वस्तुरूपेण संबंधादितिचेत् , स तत्संबंधिनोरनांतरमर्थांतरं वा ? यद्यनांतरं तदा संबंधिनावेव प्रसज्येते / तथा च न संबंधो नाम / स ततोतिरं चेत् संबंधिनौ केवलौ कथं संबंधौ स्याता तत्त्वान्यत्वाभ्यामवाच्यश्चेत् कथं वस्तुभूतः स्यात् / भवतु चार्थांतरमनांतरं वा संबंधः / स तु द्वयोरेकेन कुतः स्वलक्षण तत्त्व ही बिना अपेक्षा सम्बन्ध को प्राप्त होता है। उस स्वलक्षण सम्बन्ध से अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है और वह स्वलक्षणरूप सम्बन्ध अनापेक्षिक है और बौद्धों को इष्ट ही है। इस कथन में बौद्ध और जैनमत में नाम मात्र का विवाद है। वास्तविक वस्तु में विवाद नहीं है" इस प्रकार बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य प्रत्युत्तर देते हैं कि कौन वादी सम्बन्ध को अस्वलक्षण (स्वलक्षण रहित) कहता है? अर्थात् कोई नहीं कहता है क्योंकि सम्बन्ध भी स्वकीय लक्षण से लक्ष्यमाण होता हुआ स्वलक्षण स्वरूप ही है स्वलक्षण को छोड़कर कोई वस्तु रहती ही नहीं। बौद्ध प्रश्न करते हैं कि- दो सम्बन्धियों के मध्य में रहने वाला सम्बन्ध कैसे सिद्ध हो सकता है ? इस पर जैन या अन्य कोई यों कहे कि एक संयोग नामक गुण से अथवा अन्य किसी अन्तर स्थित धर्म के द्वारा अवाच्य वस्तु के स्वरूप से दोनों का सम्बन्ध होना बन जाता है, ऐसा कहने पर तो प्रश्न उठता है कि अन्तराल में स्थित वह अवाच्य वस्तु स्वरूप उन दो सम्बन्धियों से भिन्न है ? या अभिन्न है ? (अर्थान्तर है ? कि अनर्थान्तर है ?) यदि अनर्थान्तर (अभिन्न) है तब तो केवल दो सम्बंधियों के मानने का ही प्रसंग आयेगा और ऐसा होने पर सम्बन्ध की स्थिति नहीं रहेगी, सम्बन्ध सिद्ध नहीं होगा। यदि सम्बन्ध को दोनों सम्बन्धियों से भिन्न मानते हो तो पृथक् स्थित सम्बन्ध से केवल दो सम्बंधियों का सम्बन्ध कैसे सिद्ध होगा? यदि भिन्न और अभिन्न रूप से नहीं कहने योग्य (तत्त्व और अतत्त्व से रहित) अवाच्य सम्बन्ध है तो वह अवाच्य सम्बन्ध वस्तुभूत कैसे होगा ? यदि पदार्थ कैसा भी हो, सम्बन्ध अर्थान्तरभूत (भिन्न) हो चाहे अनर्थान्तर भूत हो तो वह सम्बन्ध दो में एक रूप से कैसे रहेगा ? अर्थात् दो सम्बन्धियों में किसी अन्य सम्बन्ध से रहने वाला सम्बन्ध होता है। दूसरे एक से सम्बन्ध मानते हैं तो भी उसके साथ सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता। यदि दूसरे एक सम्बन्ध से दो के साथ सम्बन्ध का सम्बन्ध माना जायेगा तो अनवस्था दोष आता है अर्थात् जैसे आत्मा और ज्ञान में रहने वाला संयोग सम्बन्ध गुण होने के कारण समवाय सम्बन्ध से है तब आत्मा और ज्ञान में रहने वाला समवाय भी किसी दूसरे सम्बन्ध से युक्त होगा अतः अनवस्था दोष आयेगा। इसलिए सम्बन्ध ज्ञान नहीं है। बहुत दूर जाकर भी दो सम्बन्धियों में सम्बन्ध का ज्ञान कैसे भी नहीं हो सकता? अर्थात् सर्व पदार्थ अपने स्वरूप में स्थित हैं, किसी का किसी के साथ सम्बन्ध नहीं है।