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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 319 स्यात् / परेणैकेन-संबंधादिति चेत् तेनापि न संबंधः। परेणैकेन संबंधादित्यनवस्थानात् संबंधमतिः सुदूरमपि गत्वा द्वयोरेकाभिसंबंधमंतरेणापि संबंधत्वेन कथं न अभिसंबंधत्वमति: केवलयो: संबंधिनोरतिप्रसंगात् / यदि संबंधश्च स्वेनासाधारणेन रूपेण स्थितस्तदा सिद्धममिश्रणमर्थानां परमार्थतः / तदुक्तं / “द्वयोरेकाभिसंबंधात् संबंधो यदि तद्वयोः / कः संबंधोऽनवस्था च न संबंधमतिस्तथा // " “तौ च भावौ तदन्यश्च सर्वे ते स्वात्मनि स्थिताः / इत्यमिश्राः स्वयं भावास्तन्मिश्रयति कल्पना // " इति कथं संबंध: स्वलक्षणमिष्यते संबंधिनोरांतरं ततोऽनतिरस्य तु तथेष्टौ न वस्तुव्यतिरेकेण संबंधोन्यत्र कल्पनामात्रादिति वदन्नपि न स्याद्वादिमतमवबुध्यते। तद्विभेदाभेदैकांतपराङ्मुखं न तद्दोषास्पदं / येन रूपेण लक्ष्यमाणः संबंधो अन्यो वार्थः स्वलक्षणमिति तु परस्परापेक्षभेदाभेदात्मकं जात्यंतरमेवोक्तं तस्याबाधितप्रतीतिसिद्धत्वेन स्वलक्षणव्यपदेशात् / ततो न अन्यथा अति प्रसंग दोष आता है और किसी का किसी के भी साथ स्वामी सम्बन्ध हो जायेगा। यदि कहा जाए कि स्वकीय असाधारण रूप से सम्बन्ध स्थित है तब तो परमार्थ से पदार्थों का अमिश्रण रूप (परस्पर नहीं मिलने रूप) असम्बन्ध ही सिद्ध होता है अर्थात् सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में पृथक्-पृथक् अवस्थित हैं किसी का किसी के साथ सम्बन्ध नहीं है। सो ही कहा है: - "दोनों का एक अभिसम्बन्ध होने से यदि सम्बन्ध माना जाता है तो फिर उन दोनों का क्या सम्बन्ध होगा? अनवस्था होने से सम्बन्ध ज्ञान भी नहीं हो सकता है" अर्थात् दंड और दंडी का संयोग सम्बन्ध माना जाये और दण्ड में संयोग गुण समवाय सम्बन्ध से रहे अतः संयोग और दण्ड का समवाय माना जाए। समवाय का संयोजक स्वयंरूप सम्बन्ध से और समवाय में स्वरूप सम्बन्ध विशेषणता सम्बन्ध से रहता है। इस प्रकार सम्बन्धों की परम्परा शांत न होने से अनवस्था दोष आता है। यह अनवस्था दोष सम्बन्ध ज्ञान नहीं होने देता है तथा “वे दोनों सम्बन्धी रूप भाव और उनसे भिन्न सम्बन्ध तथा दूसरे सर्व पदार्थ स्वस्वरूप में स्थित हैं अत: सर्व पदार्थ अमिश्र हैं (परस्पर भिन्न-भिन्न हैं, व्यावृत हैं मिले हुए नहीं हैं)। व्यवहारी लोग कल्पना ज्ञान से सम्बन्ध की (मिश्रण की) कल्पना करते हैं" इसलिए सम्बन्धियों से भिन्न सम्बन्ध पदार्थ स्वलक्षण कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं। उन सम्बन्धियों से अभिन्न सम्बन्ध का इष्ट करोगे तो दोनों सम्बन्धी रूप वस्तुओं से भिन्न कोई सम्बन्ध पदार्थ नहीं बन सकता। केवल कल्पना के अतिरिक्त सम्बन्ध कोई वस्तु नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाला सौगतानुयायी भी स्याद्वाद सिद्धान्त को नहीं समझता है, क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त भेद और अभेद के एकान्त से पराङ्मुख है। अत: दोष के स्थान से रहित है अर्थात् सौगत के द्वारा कथित सम्बन्ध के निषेध से सम्बन्ध सिद्धि में दिये गये दोष स्याद्वाद सिद्धान्त में लागू नहीं हो सकते। जिस रूप से लक्षित सम्बन्ध वा अन्य पदार्थ स्वलक्षण है इसे परस्पर सापेक्ष भेदाभेदात्मक भिन्न जाति वाला पदार्थ कहा जाता है कथञ्चित् भेदाभेदात्मक वस्तु की अबाधित प्रतीति सिद्ध होती है। इसलिए स्वलक्षण इस नाम को प्राप्त होता है। तथा कल्पना के अनुसार चलने वाले व्यवहारी 1. परेणैकेन सम्बन्धादितिचेत् तेनापि न सम्बन्धः' यह सोलापुर प्रति में नहीं है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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