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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 317 खरशृंगवत् / नापि सन् सर्वनिराशंसत्वादन्यथा सत्त्वविरोधात् कथंचित्सन्नसन्नापेक्ष्य इत्ययमपि पक्षो न श्रेयान् पक्षद्वयदोषानतिक्रमात् / न चैकोर्थः सन्नसंश्च केनचिद्रूपेण संभवति विरोधादन्यथातीतानागताद्यशेषात्मको वर्तमानार्थ: स्यादिति न क्वचित्सदसत्त्वव्यवस्था, संकरव्यतिकरापत्तेः / ततोपरापेक्षाणामसन्निबंधन: संबंध: सिद्ध्येत् / तदुक्तं / “परापेक्षादिसंबंध: सोसत्कथमपेक्षते। संश्च सर्वनिराशंसो भावः कथमपेक्ष्यते॥” इति कश्चित् / सोपि सर्वथा सदसत्त्वाभ्यां भावस्य परापेक्षाया विरोधमप्रतिपद्यमानः कथं तां प्रतिषेध्यात् / प्रतिपद्यमानस्तु स्वयं प्रतिषेद्धुमसमर्थस्तस्याः क्वचित्सिद्धेरन्यथा विरोधायोगात् कथं चानिराकुर्वन्नपि परापेक्षा सर्वत्र संबंधस्यानापेक्षिकत्वं प्रत्याचक्षीत? न चेदुन्मत्तः / स्वलक्षणमेव संबंधोऽनापेक्षिक: स्यान्न ततोऽन्यः / प्रथम पक्ष के अनुसार असद्भूत पदार्थ तो पर की अपेक्षा नहीं कर सकता है क्योंकि अपेक्षा क्रिया रूप धर्म का आश्रय सद्भूत कर्ता होना चाहिए। असत् पदार्थ को खर (गधे) के सींग के समान अपेक्षा धर्म के आश्रयपन का विरोध है। तथा दूसरे पक्ष के अनुसार सद्भूत पदार्थ भी परकी अपेक्षा नहीं रखता है। सत्त्व होने से सर्व आकांक्षाओं से रहित है। वह किसी की अपेक्षा नहीं करता है। अन्यथा यदि सत् पदार्थ परकी अपेक्षा करता है, तो उसके सद्भूतत्व में विरोध आता है अर्थात् जो परिपूर्ण नहीं है वही अन्य की अपेक्षा करता है। कथंचित् सत् और कथंचित् असत् अपेक्षा करके कहना यह पक्ष भी श्रेष्ठ नहीं है। क्यों कि दोनों पक्षों में कथित दोषों का अतिक्रम नहीं होता है अर्थात् सत् और असत् पक्ष में दिये गये दोष उभय पक्ष में प्राप्त हो जाते हैं। अथवा एक ही पदार्थ किसी स्वरूप से सद्भूत और किसी से असत् हो, ऐसा संभव नहीं है क्योंकि इसमें परस्पर विरोध है। अन्यथा, यदि ऐसा नहीं है तो वर्तमानकालीन पदार्थ ही अतीत (भूत), अनागत (भविष्यत्) आदि अशेष आत्मक हो जायेगा। इस प्रकार किसी भी पदार्थ में सत्त्व और असत्त्व की व्यवस्था नहीं होगी। तथा संकर (सब मिलकर एक हो जाना) और व्यतिकर दोष का भी प्रसंग आयेगा जिससे दूसरों की अपेक्षा रखने वाले पदार्थ का असत् कारण मानकर होने वाला सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है अर्थात् परापेक्षा रूप सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता। सो ही बौद्ध कथित ग्रन्थ में कहा है: जो परापेक्षा रखने वाला सम्बन्ध है-वह असद्भूत होकर दूसरों की अपेक्षा कैसे कर सकता है ? यदि वह सम्बन्ध सत् रूप है तब तो निराकांक्ष है और जो निराकांक्षभाव है वह दूसरे की अपेक्षा कैसे कर सकता है। इस प्रकार बौद्ध के कह चुकने पर जैनाचार्य कहते हैं कि ___ वह सौगत सर्वथा सद् और असद् के द्वारा पदार्थों की परापेक्षा से होने वाले विरोध को नहीं समझता हुआ परापेक्षा का निषेध कैसे कर सकता है ? और सत् असद् के द्वारा भावों का परापेक्षा के साथ विरोध को जानने वाला बौद्ध स्वयं निषेध करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि कहीं-न-कहीं सम्बन्ध के साथ पर पदार्थ की अपेक्षा सिद्ध हो जाती है तब ही तो विरोध आता है अन्यथा (परपदार्थों की अपेक्षा के सिद्ध हुए बिना) विरोध का अयोग है। तथा दूसरे की अपेक्षा का निराकरण नहीं करने वाला सर्वत्र सम्बन्ध की अनापेक्षिकता का खण्डन कैसे कर सकता है ? यदि बिना जाने सम्बन्ध का खण्डन करेगा तो वह उन्मत्त (पागल) है। अर्थात् उन्मत्त (पागल) पुरुष ही परापेक्षा को मानता हुआ भी अपेक्षा का खण्डन करता है, ज्ञानी नहीं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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