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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 316 सूक्ष्मत्वादिवदसंबंधस्वभावस्यापि तथानुषंगात् / स चासंबंधस्वभावोऽनापेक्षिकः कथंचिदर्थमपेक्ष्य कस्यचित्तद्व्यवस्थितेरन्यथानुपपत्तेः / स्थूलत्वादिवत् प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभासमानो अनापेक्षिक एव तत्पृष्ठभाविना तु विकल्पेनाध्यवसीयमानो यथापेक्षिकस्तथा वास्तवो भवतीतिचेत्, संबंधस्वभावोपि समानं / न हि स प्रत्यक्षेन प्रतिभासते यतोऽनापेक्षिको न स्यात् / ननु च परापेक्षेव संबंधस्तस्य तन्निष्ठत्वात् तदभावे सर्वथाप्यसंभवात् / परापेक्षमाणो भावः स्वयमसत्त्वादपेक्षते स तथा न तावदसन्नपेक्षो धर्माश्रयत्वविरोधात् तादात्म्य सम्बन्ध आदि सिद्ध है। जब स्वस्वरूप से पदार्थों की स्थिति होती है तब एकान्त रूप से सर्वथा सम्बन्ध के अभाव को सिद्ध कैसे कर सकते हैं ? जैसे एकान्त रूप से सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है, वैसे ही एकान्त रूप से सम्बन्ध का अभाव भी सिद्ध नहीं होता है। भावार्थ : पर्याय और पर्यायी का सम्बन्ध माने बिना स्वस्वभावों में पदार्थों की व्यवस्था नहीं हो सकती। सूक्ष्मत्व, ह्रस्वत्व आदि के समान सापेक्ष (अपेक्षा सहित होने से) सम्बन्ध स्वभाव का मिथ्या प्रतिभास है-ऐसा नहीं है क्योंकि अपेक्षाकृत को मिथ्या कहने पर असम्बन्ध स्वभाव के भी मिथ्या प्रतिभास होने का प्रसंग आता है क्योंकि असम्बन्ध स्वभाव भी अनपेक्षिक (अपेक्षा रहित) नहीं है। किसी पदार्थ की अपेक्षा से ही असम्बन्ध की व्यवस्था होती है। अन्यथा (यदि असम्बन्ध किसी की अपेक्षा नहीं रखता है तो) अन्य किसी एक पदार्थ का किसी अन्य एक अर्थ की अपेक्षा से असम्बन्ध की व्यवस्था नहीं होती। जैसे स्थूल, ह्रस्व आदि की अपेक्षा के बिना व्यवस्था नहीं हो सकती। यदि अपेक्षा सहित होने से गुरु -शिष्य, पिता-पुत्र, स्वामी-सेवक, पति-पत्नी आदि सम्बन्ध वास्तविक नहीं माने जाते हैं तो असम्बन्ध भी वास्तविक सिद्ध नहीं हो सकता। बौद्ध कहता है कि प्रत्यक्ष बुद्धि में प्रतिभासमान असम्बन्ध अनापेक्षिक है; पुन: उसके पीछे होने वाले असत्य विकल्प के द्वारा निर्णीत होने से जैसे असम्बन्ध आपेक्षिक है, उसी प्रकार असम्बन्ध अवस्तुभूत है अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान का विषयभूत असम्बन्ध अंश वास्तविक है और कल्पना से ज्ञात असम्बन्ध अंश अवास्तविक है परन्तु सम्बन्ध तो किसी प्रकार से भी वास्तविक नहीं है। __ जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो वस्तु के सम्बन्ध स्वभाव में भी समान रूप से यही कथन लागू हो जाता है, वह सम्बन्ध प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होता है, ऐसा नहीं है अर्थात् सम्बन्ध भी प्रत्यक्ष ज्ञानमें प्रतिभासित होता है जिससे वह अनापेक्षिक नहीं हो सकेगा। अपितु सम्बन्ध भी प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से वास्तविक है। सम्बन्ध को नहीं मानने वाला बौद्ध कहता है कि-सम्बन्ध अन्य की अपेक्षा रखने वाला ही होता है-क्योंकि वह सम्बन्ध आपेक्षिक पदार्थों में ही रहता है। अपेक्षणीय पदार्थों के अभाव में सम्बन्ध की सर्वथा असंभवता है। अथवा दूसरों की अपेक्षा रखने वाले सम्बन्ध स्वयं असद्भूत होकर दूसरों की अपेक्षा रखता है कि (अथवा) स्वयं सत् होकर परापेक्षा करता है ?
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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