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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 315 न पुनः स्याद्वादिना / ते हि कथंचिदेकत्वापत्तिं संबंधिनो रूपश्लेषं संबंधमाचक्षते। न च सा द्वित्वविरोधिनी कथंचित्स्वभावनैरंतर्यं वा तदपि नांतराभावरूपमस्तित्वं छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमस्यांतरस्याभावो हि तत्स्वभावांतरात्मको वस्तुभूत एव यदा रूपश्लेषः कयोश्चिदास्थीयते निर्बाध तथा प्रत्ययविषयस्तदा कथं कल्पनारोपितः स्यात् / के नचिदंशेन तादात्म्यमतादात्म्यं च संबंधिनोविरुद्धमित्यपि न मंतव्यं तथानुभवाच्चित्राकारसंवेदनवत् / एतेन प्राप्त्यादिरूपं नैरंतर्यं रूपश्लेष इत्यपि स्वीकृतं तस्यापि कथंचित्तादात्म्यानतिक्रमात् / ततः स्वस्वभावव्यवस्थितेः प्रकृतिभिन्नानामर्थानां न संबंधस्तात्त्विक इत्ययुक्तं तत एव तेषां संबंधसिद्धेः / स्वस्वभावो हि भावानां प्रतीयमानः कथंचित्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षश्च सर्वथा तदप्रतीतेस्तेन चावस्थितिः कथं संबंधाभावैकांतं साधयेत् संबंधैकांतवत् / न चापेक्षत्वात् संबंधस्वभावस्य मिथ्याप्रतिभासः जैनाचार्य उक्त शंकाओं का समाधान करते हैं एकान्तवादियों की यह कुतर्कणा (शंकायें) स्याद्वादियों के प्रति नहीं हो सकती क्योंकि वे स्याद्वादी सम्बन्धियों के संश्लेष रूप सम्बन्ध को कथंचित् एकरूप कहते हैं और वह एकत्व की प्राप्ति दो का विरोध करने वाली नहीं है अर्थात् आत्मा और पुद्गल का अथवा स्वर्ण और चांदी का संश्लेष होने पर भी वे दोनों एकरूप नहीं होते हैं तथा नैरन्तर्य सर्वथा अन्तर के अभाव रूप तुच्छाभाव नहीं है अपितु इस प्रकरण मे अन्तर का छिद्र, मध्य, विरह, सामीप्य, विशेष आदि अनेक अर्थ हैं। इस सूत्र में अन्तर का छिद्र, मध्य, विरह में से किसी एक अन्तर के अभाव स्वरूप अर्थ माना गया है अत: वह स्वभावान्तरात्मक भावस्वरूप होने से वास्तविक ही है। अथवा (जिस समय) किन्हीं दो पदार्थों का वस्तुभूत निरन्तर रूपसंश्लेष निर्बाध ज्ञान का विषय होता हुआ स्थित है, इस प्रकार ज्ञान का विषयभूत रूपसंश्लेष कल्पना आरोपित कैसे हो सकता है अर्थात् रूपसंश्लेष कल्पित नहीं है। दो सम्बन्धियों का किसी अंश से तादात्म्य हो जाना और किसी अंश से तादात्म्य नहीं होना, यह विरुद्ध है, ऐसा भी नहीं मानना चाहिए। क्योंकि चित्राकार के सम्बन्ध के समान इस प्रकार का अनुभव होता है अर्थात् जैसे चित्राकार वाले संवेदन का नीलाकार से अभेद है, कथंचित् भेद है। ऐसा भेदाभेदात्मक चित्र ज्ञान सौगत ने स्वीकार किया है। - इस कथन (कथंचित् भेदाभेदात्मक रूप) से बौद्ध के द्वारा कथित प्राप्ति आदिरूप नैरन्तर्य रूपसंश्लेष है, यह भी स्वीकार कर लिया गया है क्योंकि निरंतर का भी कथञ्चित् तादात्म्य से अतिक्रमण नहीं है अर्थात् सौगत सिद्धान्त में जो नैरन्तर्य (अन्तर रहित) संश्लेष है (सम्बन्ध है) वही जैन सिद्धान्त में कथंचित् तादात्म्य है। इसलिए प्रकृति (स्वभाव) से भिन्न पदार्थों का अपने स्वभाव में व्यवस्थित होने से उनका परस्पर सम्बन्ध वास्तविक नहीं है-ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि सम्बन्ध का निषेध करना ही सम्बन्ध की सिद्धि है अर्थात् विधि के बिना निषेध नहीं क्योंकि पदार्थों का स्वस्वभाव प्रतीत होता है अत: स्वभाव और स्वभाववानों की कथंचित् प्रत्यासत्ति (निकटता) और कथंचित् विप्रकर्ष (दूरत्व) प्रतीत हो रहा है। सर्वथा प्रत्यासत्ति या विप्रकर्षत्व प्रतीत नहीं होता है। कथंचित् स्व स्वामी सम्बन्ध, समवाय सम्बन्ध,
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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