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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 314 द्रव्येण कयोश्चित्पर्याययोः क्रमभुवोः सहभुवोर्वा तादात्म्यं तच्च रूपश्लेषः स च द्वित्वे सति संबंधिनोरयुक्त एव विरोधात् तयोरैक्येपि न संबंध: संबंधिनोरभावे तस्याघटनात् द्विष्ठत्वादन्यथातिप्रसंगात् / नैरतर्यं तयो रूपश्लेषः इत्यप्ययुक्तं, तस्यांतराभावरूपत्वे तात्त्विकत्वायोगात् प्राप्तिरूपत्वेपि प्राप्तेः। परमार्थतः कात्स्न्यैकदेशाभ्यामसंभवाद्गत्यंतराभावात् / कल्पितस्य तु रूपश्लेषस्याप्रतिषेधात् न स तात्त्विक: संबंधोस्ति प्रकृतिभिन्नानां स्वस्वभावव्यवस्थिते: अन्यथा सांतरत्वस्य संबंधप्रसंगादिति केचित् / तदुक्तं / “रूपश्लेषो हि संबंधो द्वित्वे स च कथं भवेत् / तस्मात् प्रकृतिभिन्नानां संबंधो नास्ति तत्त्वतः // " इति। तदेतदेकांतवादिनश्चोधे शंका : एक द्रव्य के साथ क्रम से होने वाली किन्हीं विवक्षित अनुभव, स्मरण रूप पर्यायों का अथवा रूप, रस आदि गुण स्वरूप पर्यायों का तदात्मक हो जाना द्रव्य प्रत्यासत्ति है और तादात्म्यस्वरूप प्रत्यासत्ति का अर्थ है-रूपश्लेष (एकमेक हो जाना) परन्तु वह श्लेष सम्बन्धियों के द्वित्व (दो) होने पर अयुक्त है। श्लेष सम्बन्ध दो पदार्थों में नहीं हो सकता क्योंकि श्लेष और द्वित्व इनमें परस्पर विरोध है अर्थात् स्वतंत्र दो पदार्थों का तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता। तथा उन सम्बन्धियों का एकत्व स्वीकार करने पर भी सम्बन्ध घटित नहीं होता है। और दो सम्बन्धियों के अभाव में भी उस सम्बन्ध की घटना नहीं हो सकती क्योंकि सम्बन्ध दो पदार्थों में ही होता है, अकेले में नहीं। अन्यथा (यदि एक में रहने वाला सम्बन्ध माना जायेगा तो) अतिप्रसंग दोष आयेगा अर्थात् आत्मा-आत्मा का बन्ध हो जायेगा। ___उस द्रव्य प्रत्यासत्ति रूप सम्बन्ध को तादात्म्य सम्बन्ध न मान कर नैरन्तर्य (अन्तराल रहित) सम्बन्ध मानना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वह निरंतरता अन्तराल के अभाव रूप है अतः उसमें वास्तविकता का अयोग है। यदि संश्लेष का अर्थ दोनों की परस्पर प्राप्ति होना माना जाता है तो वह प्राप्ति पूर्ण रूप से होती है या एकदेश रूप होती है, ये दो प्रश्न उठते हैं। उनमें पूर्ण रूप से या एकदेश से प्राप्ति होना परमार्थ से असंभव है अर्थात् पूर्ण रूप से सम्बन्ध मानने पर अनेक परमाणुओं का पिण्ड एक अणुमात्र हो जायेगा एकदेश संश्लेष मानने पर वह आत्मभूत और परात्मभूत के भेद से दो प्रकार का होगा। यदि एकदेश संश्लेष आत्मभूत है तो दो वस्तु का संश्लेष पृथक्-पृथक् रहेगा और परात्मभूत कहेंगे तो उसका सम्बन्ध कराने के लिए दूसरे की और उसे तीसरे की आवश्यकता होने से अनवस्था दोष आयेगा। संश्लेष का स्पष्ट अर्थ करने के लिए इन तीन से अतिरिक्त गत्यन्तर का अभाव है अर्थात् अन्य कोई उपाय नहीं है। कल्पित रूप संश्लेष का भी निषेध नहीं कर सकते, क्योंकि वह तात्त्विक नहीं है। वह रूप संश्लेष स्वकीय भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के अनुसार सर्वथा भिन्न पदार्थों में अपने निज स्वरूप से अवस्थित है। उनका परस्पर स्वरूप संश्लेष कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता, जैसे जल और कमल इन दो भिन्न पदार्थों में संश्लेष (एकमेकता) नहीं हो सकता। अन्यथा (निरन्तरता को सम्बन्ध कहोगे तो) सांतरता के भी सम्बन्ध होने का प्रसंग आयेगा। ऐसा कोई (बौद्ध) कहता है, उनके ग्रन्थ में भी लिखा है। “रूप संश्लेष सम्बन्ध दो पदार्थों में कैसे हो सकता है ? इसलिए प्रकृति से भिन्न पदार्थों का सम्बन्ध वास्तविक नहीं है।" इति।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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