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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 313 सकृदसंभवः प्रतीतिसिद्धत्वाद्वेद्याद्याकारव्याप्येकज्ञानवत् / कालप्रत्यासत्तिर्यथा सहचरयोः सम्यग्दर्शनज्ञानसामान्ययोः शरीरे जीवस्पर्शविशेषयोर्वा पूर्वोत्तरयोर्भरणिकृत्तिकयोः कृत्तिकारोहिण्योर्वा तयोः प्रत्यासत्त्यंतरस्याव्यवस्थानात्। भावप्रत्यासत्तिर्यथा गोगवययोः के वलिसिद्धयोर्वा तयोरेकतरस्य हि यादृग्भाव: संस्थानादिरनंतज्ञानादिर्वा तादृक्तदन्यतरस्य सुप्रतीत इति न प्रत्यासत्त्यंतरं कयोश्चिदनेकप्रत्यासत्तिसंबंधे वा न किंचिदनिष्टं प्रतिनियतोद्भूते: सर्वपदार्थानां द्रव्यादिप्रत्यासत्तिचतुष्टयव्यतिरेकेणानुपपद्यमानत्वेन प्रसिद्धेः / सैव चतुर्विधा प्रत्यासत्तिः स्फुट: संबंधो बाधकाभावादिति न संबंधाभावो व्यवतिष्ठते / ननु च द्रव्यप्रत्यासत्तिरेकेन ____ जैसे सहचर (एक साथ रहने वाले) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सामान्य की काल प्रत्यासत्ति है। अथवा शरीर में जीव और स्पर्श विशेष की काल प्रत्यासत्ति है। पूर्व और उत्तर काल में उदय होने वाली भरणी नक्षत्र और कृत्तिका नक्षत्र के अथवा कृत्तिका और रोहिणी के काल की अपेक्षा प्रत्यासत्ति है। काल प्रत्यासत्ति के बिना सम्यग्दर्शन आदि के सहचर भाव की व्यवस्था नहीं हो सकती है। इस प्रकार काल प्रत्यासत्ति का कथन पूर्ण हुआ। अब भाव प्रत्यासत्ति का कथन करते हैं-गौ (गाय) और गवय (रोझ) में सादृश्य सम्बन्ध होने के कारण, जैसे संस्थान रचना आदि परिणाम गौ में हैं वैसे ही रचना आदि रोझ में हैं अत: इन दोनों में रचना आदि की अपेक्षा भाव प्रत्यासत्ति है। केवली भगवान और सिद्ध भगवान में परस्पर भाव प्रत्यासत्ति है। क्योंकि जैसे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य आदि भाव तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवान के हैं वैसे ही अनन्त ज्ञानादि भाव सिद्ध परमेष्ठी के हैं। अथवा सिद्ध भगवान के जैसे अनन्त ज्ञानादि हैं-वैसे केवली भगवान के भी प्रतीत हो रहे हैं। भाव प्रत्यासत्ति से भिन्न सम्बन्ध की इनमें सम्भावना नहीं है। किन्हीं दो पदार्थों में अनेक प्रत्यासत्ति रूप सम्बन्ध हो जाये तो कोई अनिष्ट नहीं है, क्योंकि अपने नियत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कारण से सम्पूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति (परिणमन) होती है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार सम्बन्धों के अतिरिक्त (भिन्न) अन्य सम्बन्धों की असिद्धि होने से द्रव्य क्षेत्र आदि चार सम्बन्धों की ही प्रसिद्धि है। भावार्थ : सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के एक आत्मद्रव्य में रहने के कारण द्रव्य प्रत्यासत्ति है, एक क्षेत्रावगाही होने से क्षेत्र प्रत्यासत्ति है। एक समय में रहने से काल प्रत्यासत्ति है और दोनों ही क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव होने से इनमें भाव प्रत्यासत्ति भी है। इस प्रकरण में बाधक प्रमाण का अभाव होने से स्फुट रूप से चार प्रकार के प्रत्यासत्ति रूप सम्बन्ध हैं अतः सम्बन्ध का अभाव व्यवस्थित नहीं है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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