________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 312 यदि पुनरेकं द्रव्यमनेककार्योपादानं भवेत्तदा सैवेकद्रव्यप्रत्यासत्तिरायाता रसरूपयोः। क्षेत्रप्रत्यासत्तिर्यथा बलाकासलिलयोरेकस्यां भूमौ स्थितयोः संयुक्तसंयोगो हि ततो नान्यः प्रतिष्ठामियति / जन्यजनकभाव एव तयोः परस्परं प्रत्यासत्तिरितिचेन्न, अन्यतरसमुद्भूतायाः परत्र सरसि बलाकाया निवाससंभवात् / नैका बलाका पूर्वं सरः प्रविहाय सरोंतरमधितिष्ठंती काचिदस्ति प्रतिक्षणं तद्भेदादितिचेन्न, कथंचित्तदक्षणिकत्वस्य प्रतीतेर्बाधकाभावात्तद्भांतत्वानुपपत्तेः / क्षितेः प्रतिप्रदेशं भेदादेकत्र प्रदेशे बलाकासलिलयोरनवस्थानान्नैव तत्क्षेत्रप्रत्यासत्तिरितिचेन्न, क्षित्याद्यवयविनस्तदाधारस्यैकस्य साधनात् / न चैकस्यावयविनो नानावयवव्यापिन: भी संभाव्य (संभवना करने योग्य) नहीं है क्योंकि अनेक कार्यों का एक उपादान होने का विरोध है। यदि अनेक कार्यों का एक द्रव्य उपादान कारण माना जायेगा तो रूप और रस की वही एकद्रव्य प्रत्यासत्ति सिद्ध होती है अर्थात् रूप और रस का परस्पर साध्य साधन वा कार्य कारण भाव एकद्रव्य की प्रत्यासत्ति के बिना नहीं हो सकता। इस प्रकार अनुभव और स्मरण भी एक द्रव्य प्रत्यासत्ति (एक नित्य आत्म द्रव्य) के बिना सिद्ध नहीं हो सकते। अब क्षेत्र प्रत्यासत्ति का कथन करते हैं। जैसे एक भूमि में स्थित बकपंक्ति और जल का संयुक्त संयोग सम्बन्ध ही क्षेत्रप्रत्यासत्ति है। उससे भिन्न और कोई दूसरा सम्बन्ध यहाँ प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं हो सकता है। इस प्रकार के क्षेत्र सम्बन्ध को नहीं मानकर उन जल और बगुला का परस्पर में जन्य-जनकभाव क्षेत्र प्रत्यासत्ति मानना युक्त नहीं है क्योंकि दूसरे सरोवर में उत्पन्न बलाकाओं का अन्य दूसरे सरोवर में निवास करना संभव है। अर्थात् एक सरोवर की बलाका दूसरे तालाब में जा सकती है। एक ही बलाका पूर्व तालाब को छोड़कर दूसरे तालाब में जाकर नहीं रहती है क्योंकि बगुला प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न पर्यायों को प्राप्त होता है अतः प्रत्येक समय में भिन्न-भिन्न बगुला होती हैं ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि बक पंक्ति के कथंचित् अक्षणिकत्व (नित्यत्व) की प्रतीति के बाधक प्रमाण का अभाव है अर्थात् बगुला की पंक्ति कथंचित् नित्य है, ऐसा प्रतीत होता है, इसमें कोई बाधा नहीं है अतः इसमें भ्रान्तत्व की अनुपपत्ति है। जीवन से लेकर मरण पर्यन्त जीवित रहने वाला बगुला एक है। “पृथ्वी के प्रत्येक प्रदेश में भेद होने से एक आकाश प्रदेश में बलाका और जल दोनों की अवस्थिति नहीं हो सकती है अत: एक प्रदेश में रहने वालों की क्षेत्र प्रत्यासत्ति सिद्ध नहीं हो सकती। ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उन जल, बगुला पंक्ति आदि के आधारभूत भूमि आदि अनेक अवयवों की सिद्धि की जा चुकी है। अनेक अवयवों में एक ही समय व्यापक रहने वाले एक अवयवी द्रव्य का रहना असंभव है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि वेद्य आकार, वेद आकार और संवित्ति आकार इनमें व्यापक रूप से रहने वाला एक ज्ञान माना गया है। वह प्रतीति सिद्ध है, उसी प्रकार अनेक अवयवों में एक ही समय एक ही द्रव्य का रहना प्रतीति सिद्ध है। इस प्रकार क्षेत्र प्रत्यासत्ति सिद्ध करके कालप्रत्यासत्ति का कथन करते हैं।