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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 307 परोपगमात् तस्यतेन व्याप्तिसिद्धेरदोष इति चेन्न, तथा स्वप्रतिपत्तेरभावानुषंगात् / परोपगमाद्धि परः प्रतिपादयितुं शक्यः / सर्वथा संबंधाभावान्नाशक्य एव प्रत्यक्षत इति चेन्न, तस्य स्वांशमात्रपर्यवसानात् / न कश्चित्केनचित्कथंचित्कदाचित्संबंध इतीयतो व्यापारात्कर्तुमसमर्थत्वादन्यथा सर्वज्ञत्वापत्तेः / सर्वार्थानां साक्षात्करणमंतरेण संबंधाभावस्य तेन प्रतिपत्तुमशक्तेः / केषांचिदर्थानां स्वातंत्र्यमसंबंधेन व्याप्तं सर्वोपसंहारेण अग्नि का और धूम का अविनाभाव ज्ञात होता है तो अग्नि के अभाव में धूम का अभाव जान लिया जाता है। उसी प्रकार परतन्त्रता रूप व्यापक के साथ सम्बन्ध रूप व्याप्य का अविनाभाव ज्ञात होगा तो परतंत्रता के अभाव में सम्बन्ध का अभाव जान सकेंगे अन्यथा नहीं। यदि परतन्त्रता के साथ सम्बन्ध की व्याप्ति को जानते हैं तो सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है तो कैसे कह सकते हो कि सर्वत्र (सर्व देश में) और सर्वदा (सर्वकाल में) सम्बन्ध का अभाव है क्योंकि इस कथन में विरोध आता है। अर्थात् पूर्व में सम्बन्ध को मानकर पश्चात् नहीं मानना पूर्वापर विरोध है। यदि कहो कि परतन्त्रता से व्याप्त हुए सम्बन्ध हेतु को कहीं नहीं जानते हैं तो अव्यापक के अभाव से अव्याप्य के अभाव की सिद्धि कैसे कर दी जाती है ? अथवा परतंत्रता के अभाव स्वरूप हेतु की सम्बन्ध अभाव स्वरूप साध्य के साथ व्याप्ति बनने का निर्णय है कि नहीं ? अनुमान ज्ञान को प्रमाण मानने वालों को व्याप्ति नामक सम्बन्ध मानना ही पड़ेगा। दूसरे दर्शनों में स्वीकृत उस सम्बन्ध की (व्याप्ति की) उस परतन्त्रता के साथ व्याप्ति को सिद्ध कर लेते हैं अत: कोई दोष नहीं है। इस प्रकार कहना भी उचित नहीं है क्योंकि दूसरों के द्वारा स्वीकृत सम्बन्ध से व्याप्ति को स्वीकार करने पर स्वयं प्रतिपत्ति होने के अभाव का प्रसंग आयेगा क्योंकि परोपगम से पर का प्रतिपादन करना ही शक्य है। दूसरों के द्वारा स्वीकृत नियम को दूसरा ही समझा सकता है। जो स्वयं जिस ज्ञेय को जानता ही नहीं है वह दूसरों को समझा नहीं सकता। __बौद्ध कहते हैं कि सभी प्रकारों से सम्बन्ध न होने के कारण दूसरा भी समझाने के लिए समर्थ नहीं ही है। परमार्थ से प्रत्यक्ष के द्वारा ही पदार्थों के सम्बन्ध का अभाव जाना जाता है, अतः स्व को प्रतिपत्ति (ज्ञान) होना कठिन नहीं है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है-क्योंकि वह प्रत्यक्ष ज्ञान तो स्वांश (अपने अंश) को जानने में ही चरितार्थ (सार्थक) होकर नष्ट हो जाता है अत: कौनसा पदार्थ, किस पदार्थ के साथ, किस प्रकार से, किस काल में सम्बन्ध नहीं रखता है, इस प्रकार का व्यापार करने के लिए प्रत्यक्ष ज्ञान समर्थ नहीं है। अन्यथा (यदि प्रत्यक्ष ज्ञान सबको जानने में समर्थ है तो) सर्वज्ञत्व का प्रसंग आता है क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात् किये बिना (प्रत्यक्ष जाने बिना) प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा सम्बन्ध के अभाव को जानना शक्य नहीं है। सर्व देश और सर्व काल का उपसंहार करने वाली व्याप्ति को प्रत्यक्ष जानने वाला सर्वज्ञ ही हो सकता है, अन्य कोई नहीं हो सकता।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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