________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 305. धर्मेणानेकांतस्तस्य वस्तुत्वादिति चेन्न, वस्त्वंशत्वेन तस्य प्ररूपितत्वात् वस्तुत्वासिद्धेः / अन्यथा वस्त्वनवस्थानानुषंगात् / तदेवं सर्वथा वस्तुनि स्वरूपस्य निराकर्तुमशक्तेः सूक्तं निर्देश्यमानत्वमधिगम्यं / न कश्चित्कस्यचित्स्वामी संबंधाभावतोंजसा। पारतंत्र्यविहीनत्वात् सिद्धस्येत्यपरे विदुः॥१०॥ ___ संबंधो हि न तावदसिद्धयोः स्वस्वामिनोः शशाश्वविषाणवत् , नापि सिद्धासिद्धयोस्तत् वंध्यापुत्रवत् / सिद्धयोस्तु पारतंत्र्याभावादेवासंबंध एव अन्यथातिप्रसंगात् / केनचिद्रूपेण सिद्धस्यासिद्धस्य च पारतंत्र्ये सिद्धे परतंत्रसंबंध इत्यपि मिथ्या, पक्षद्वयभाविदोषानुषंगात् / न चैकस्य निष्पन्नानिष्पन्ने रूपे स्तः प्रतीघातात् / तन्न (सकल धर्म से रहित वस्तु नहीं है, साध्य) के नहीं रहने पर भी (वस्तुत्वात्) इस हेतु के रह जाने से एक अस्तित्वादि धर्म के साथ व्यभिचार दोष आता है। ऐसा बौद्ध का कथन उचित नहीं है क्योंकि धर्म को वस्तु के अंगरूप से निरूपण किया है अर्थात् धर्म वस्तु नहीं, अपितु वस्तु का अंश है अत: धर्म में वस्तुत्व की असिद्धि है इसलिए वस्तुत्व हेतु नहीं है और सकल धर्मपना साध्य भी नहीं है, अतः कोई दोष नहीं है अन्यथा (यदि एक धर्म को भी अन्य धर्मों से सहित कर वस्तुत्व माना जायेगा तो) उन धर्मों के भी अन्य धर्मों के साथ सहितपना होने से अनवस्था का प्रसंग आता है। क्योंकि अन्य धर्म से धर्म सहितता मानने पर अन्य धर्म की सहिंतता दूसरे धर्म से माननी पड़ेगी इत्यादि रूप से अनवस्था दोष आयेगा किन्तु जैन सिद्धान्त में धर्म, धर्मी के समुदाय रूप अखण्ड वस्तु मानी गयी है इसलिए सर्वथा वस्तु में स्वरूप का (स्वभाव का) निराकरण करना शक्य नहीं है। इसलिए वस्तु निर्देश्यमानत्व के द्वारा अधिगम्य है। अथवा वस्तु निर्देश्य (वचन के द्वारा कथन करने योग्य है) अतः वस्तु के स्वरूप को जानने के उपाय निर्देश का कथन समीचीन है। इस प्रकार निर्देश का कथन समाप्त हुआ। अब स्वामित्व का कथन करते हैं। * - वास्तव में, सम्बन्ध का अभाव होने से और पारतंत्र्य विहीन होने से कोई किसी का स्वामी नहीं है क्योंकि सिद्ध के समान सर्व सम्बन्ध रहित हैं। ऐसा कोई कहते हैं॥१०॥ असिद्ध में स्व और स्वामी का सम्बन्ध नहीं हो सकता जैसे असिद्ध खरगोश वा घोड़े के सींग का सम्बन्ध नहीं हो सकता है। एक असिद्ध है दूसरा सिद्ध है उनका भी सम्बन्ध नहीं हो सकता जैसे वन्ध्या के पुत्र का सम्बन्ध नहीं हो सकता। अर्थात् वन्ध्या तो सिद्ध है उसका अस्तित्व दृष्टिगोचर हो रहा है और पुत्र अविद्यमान है, इन दोनों में जन्य जननी सम्बन्ध भी नहीं हो सकता। जो दो पदार्थ परिपूर्ण निष्पन्न हैं उनमें भी एक दूसरे के साथ पराधीनता न होने से सम्बन्ध सिद्ध नहीं है, अन्यथा यदि सिद्ध (निष्पन्न) पदार्थ में परस्पर सम्बन्ध मानेंगे तो अतिप्रसंग दोष आयेगा अर्थात् सिद्ध जीव या आकाश भी पराधीन हो जायेंगे। जो स्वयं निष्पन्न नहीं है उसको पराधीनता की आवश्यकता है, निष्पन्न पदार्थ को दूसरों की आवश्यकता नहीं होती है।