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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 304 स्वरूपसंसिद्धिस्तत्स्वरूपस्यानिराकरणात् / अन्यथा तस्य पररूपत्वप्रकारेण तु सैव वस्तुभूतधर्मयुक्तता वास्तवाखिलधर्माभावस्य वस्तुनः परभावे तादृशसकलधर्मासद्भावस्य स्वात्मभूतत्वप्रसिद्धरन्यथा तदनुपपत्तेः। अथवा कल्पितानां वस्तुभूतानां च नि:शेषधर्माणां नैरात्म्यं वस्तुनः स्वरूपं यदि तदा तस्य स्वरूपसंसिद्धिरन्यथा कल्पिताकल्पितसकलधर्मयुक्तता तस्येति व्याख्येयं सामान्येन नि:शेषधर्मवचनात् / व्याघातश्चास्मिन् पक्षे नाशंकनीयः कल्पितानां वस्तुभूतानां च धर्माणां वस्तुनि यथाप्रमाणोपपन्नत्वात् / ततो यत्सकलधर्मरहितं तन्न वस्तु यथा पुरुषाद्यद्वैतं तथा च क्षणिकत्वलक्षणमिति जीवादिवस्तुनः स्वधर्मसिद्धिः सकलधर्मरहितेन अथवा वस्तुभूत सम्पूर्ण धर्मों से रहितपना वस्तु का धर्म है तब तो वस्तु का स्वरूप सिद्ध हो ही जाता है क्योंकि वस्तु के स्वरूप का निराकरण नहीं है अर्थात् धर्म रहित वा धर्म सहित वस्तु तो सिद्ध हो ती है। अन्यथा (यदि धर्म रहितत्व वस्त का स्वरूप नहीं माना जायेगा तो) उस धर्म रहितत्व का पररूपत्व प्रकार से वही वास्तविक धर्मों से यक्तपना सिद्ध हो जाता है क्योंकि वस्तभत अखिल धर्मों के अभाव को वस्तु का स्वभाव न मानकर परभाव माना जाता है तो वैसे वास्तविक सकल धर्मों के सद्भाव का स्वात्मभूतपना प्रसिद्ध हो ही जाता है, अन्यथा (धर्म सहितत्व को स्वात्मभूत माने बिना) धर्म रहितत्व का परभावपना बन नहीं सकता। अथवा कल्पित और वास्तविक सम्पूर्ण धर्मों का रहितपना वस्तु का स्वरूप मानते हैं तो उस वस्तु के स्वरूप की सिद्धि हो जाती है अर्थात् कल्पना के निराकरण से ही वस्तु का स्वरूप सिद्ध हो जाता है अन्यथा (दोनों प्रकार के धर्मों से रहितपने को वस्तु का स्वरूप न मानेंगे तो) कल्पित और अकल्पित धर्मों से युक्तता उस वस्तु को प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार व्याख्यान करना चाहिए। वस्तु नि:शेष धर्मों से रहित है, यह सामान्य कथन किया गया है। तृतीय पक्ष के अनुसार व्याघात दोष की भी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि वस्तु में कल्पित (अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य इत्यादि सप्तभंगी के विषयभूत) धर्मों का और वस्तुभूत (द्रव्यत्व, वस्तुत्व, सुख, दुःख, पुद्गल के रूप, रस इत्यादि) धर्मों के प्रमाण का उल्लंघन न करके सिद्धि हो जाती है, अर्थात् वस्तु में अस्ति आदि कल्पित धर्म और द्रव्यत्व आदि वस्तुभूत धर्म प्रमाणसिद्ध हैं क्योंकि जो सम्पूर्ण धर्म से रहित है, वह वस्तु नहीं है जैसे पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत आदि वस्तुभूत नहीं हैं उसी प्रकार बौद्ध मत में स्वीकृत क्षणिकत्व स्वलक्षण भी सम्पूर्ण धर्मों से रहित है अत: वस्तुभूत नहीं है। इस प्रकार व्यतिरेक व्याप्ति के द्वारा जीव, पुद्गल, धर्म आदि वस्तु के स्वधर्म की सिद्धि होती है अर्थात् कल्पित धर्म भी वास्तविक हैं। वस्तु के अंग हैं, असत्य नहीं हैं अपितु सत्य हैं। कोई प्रतिवादी दोष दे रहा है कि जो सकल धर्म से रहित है वह वस्तु नहीं है। इस व्याप्ति में एक धर्म से व्यभिचार दोष आता है अर्थात् एक अस्तित्व नामक धर्म अन्य धर्मों से रहित है। क्योंकि गुण में दूसरे गुण नहीं रहते हैं। स्वभाव में दूसरा स्वभाव, पर्याय में अन्य पर्याय नहीं रहती है। गुण निर्गुण हैं, पर्याय नि:पर्याय है। यहाँ निषेधवाचक 'निर्' का अर्थ अन्योन्याभाव नहीं अपितु अत्यन्ताभाव है। अतः साध्य
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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