________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 303 कल्पिताखिलधर्मरहितत्वं हि वस्तुनः स्वरूपं ब्रुवाणेन वस्तुभूतसकलधर्मसहितता स्वीकृतैव तस्य तन्नांतरीयकत्वात् / कल्पनापोढं प्रत्यक्षमित्यत्र कल्पनाकारहितत्वस्य वस्तुभूताकारनांतरीयकत्वेन प्रत्यक्षे तद्वचनात्तत्सिद्धिवत् तथा कल्पनाकाररहितत्वस्य वचनाद्वस्तुभूताकारसिद्धिर्न प्रत्यक्षे स्वीकृतैवेति चेत् , तत्किमिदानीं सकलाकाररहितत्वमस्तु तस्य संविदाकारमात्रत्वात्तत्त्वतस्तथापि नेति चेत् कथं न वस्तुभूताकारसिद्धिः / न हि संविदाकारो वस्तुभूतो न भवति संविदद्वैतस्याप्यभावप्रसंगात् / ततः कल्पितत्वेन निःशेषधर्माणां नैरात्म्यं यदि वस्तुनः स्वरूपं तदा स्वरूपसंसिद्धिः यस्मादन्यथा वस्तुभूतत्वेनाखिलधर्मयुक्तता तस्य सिद्धेति व्याख्या प्रेयसी / अथवा वस्तुभूतनिःशेषधर्माणां नैरात्म्यं वस्तुनो यदि स्वरूपं तदा तस्य करते हैं तथा कल्पित सम्पूर्ण धर्मों से रहित वस्तु के स्वरूप को कहने वाले बौद्ध वस्तुभूत सकल धर्म सहितता स्वयं स्वीकार करते ही हैं क्योंकि कल्पित धर्म रहितता वास्तविक धर्म सहितता के साथ व्याप्ति रखती है अतः कल्पित धर्म रहितता और वास्तविक धर्म सहितता में कोई अन्तर नहीं है। “प्रत्यक्ष ज्ञान कल्पना रहित है" इस प्रकार प्रत्यक्ष के लक्षण में कल्पना रूप आकारों से रहितत्व का वस्तुभूत आकारों के साथ अनान्तरीयकत्व (अविनाभावात्म) होने से प्रत्यक्ष ज्ञान में कल्पनापोढ़ शब्द से जैसे उन कल्पना रूप आकारों की सिद्धि हो जाती है, वैसे ही कल्पना धर्म रहितत्व कहने से वस्तु में वास्तविक धर्म का सहितपना सिद्ध हो ही जाता है। (जैसे इस मनुष्य की आँखं नकली नहीं है अर्थात् असली है यह सिद्ध हो जाता है।) .. तथा इस प्रकार कल्पनाकार रहितत्व के वचन (कथन) से प्रत्यक्ष ज्ञान में वस्तुभूत आकार को सिद्ध स्वीकार नहीं किया गया है। बौद्ध के इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि-क्या बौद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान को सम्पूर्ण आकारों से रहित मानते हैं ? बौद्ध प्रत्यक्ष को केवल संवित्ति (ज्ञान) आकार मात्र ही मानते हैं। अत: वास्तविक आकार सिद्ध नहीं है, तो उसके वस्तुभूत आकार की सिद्धि कैसे नहीं हो सकती। अर्थात् जब ज्ञान में आकार रहितपना नहीं है तो कल्पना रूप साकारपना स्वत: सिद्ध हो जाता है, क्योंकि संवित्ति साकार है वह वस्तुभूत है तो ज्ञान में प्रतिबिम्बित होने वाले पदार्थ वास्तविक साकार क्यों नहीं हैं ? अवश्य हैं। - तथा संविदाकार वस्तुभूत नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए क्योंकि यदि ज्ञान में आकार वस्तुभूत नहीं माने जायेंगे तो संविद् अद्वैत के भी अभाव का प्रसंग आयेगा। यदि कल्पित होने के कारण सम्पूर्ण धर्मों के निरात्मक (रहित) वस्तु का स्वरूप माना जायेगा तो वस्तु का कुछ न कुछ स्वरूप तो सिद्ध हो जायेगा। क्योंकि अन्यथा (धर्म रहितत्व वस्तु का स्वरूप नहीं मानने पर) वस्तुभूतत्व होने के कारण उस वस्तु को सम्पूर्ण धर्मों से सहितत्व स्वत: सिद्ध है, यह व्याख्या ही श्रेयस्करी है, अतिप्रिय है अर्थात् ज्ञान में प्रतिबिम्बित साकार और सविकल्प ज्ञान ही सत्य है। यह सिद्धान्त अनुभवभूत होने से श्रेष्ठ है।