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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 302 . वानेकांतात्मकं वस्तु प्रकाशयति स्वनिर्णीताबाधं तथाग्रे प्रपंचयिष्यते। किं चनिःशेषधर्मनैरात्म्यं स्वरूपं वस्तुनो यदि / तदा न निःस्वरूपत्वमन्यथा धर्मयुक्तता // 9 // तत्त्वं सकलधर्मरहितत्वमकल्पनारोपितं प्रत्यक्षतः स्फुटमवभासमानं वस्तुनः स्वरूपमेव, तेन तस्य न निःस्वरूपत्वमितीष्टसिद्धं / कल्पनारोपितं तु तन्न वस्तुनः स्वरूपमाचक्ष्महे / न च कल्पितनिःशेषधर्मनैरात्म्यस्यात्मस्वरूपत्वे वस्तुनो निःशेषधर्मयुक्ततानिष्टा, कल्पितसकलधर्मयुक्तस्य तस्येष्टत्वात् / वस्तुकृताखिलधर्मसहितता तु न शक्यापादयितुं तया वस्तुनि कल्पितनि:शेषधर्मनैरात्म्यस्वरूपत्वस्याविनाभावात् तामंतरेणापि तस्योपपत्तेरिति केचित्। तेऽपि महामोहाभिभूतमनसः। स्वयं वस्तुभूत सकलधर्मात्मकतायाः स्वीकरणेपि तदसंभवाभिधानात्। जिस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण अनेकात्मक वस्तु को प्रकाशित करता है यह सुनिर्णीत है निश्चित है, बाधारहित है, उसका कथन आगे विस्तारपूर्वक करेंगे। किं च-यदि वस्तु का स्वरूप नि:शेष धर्मों से रहित है तब तो वस्तु के स्वरूप रहितता नहीं है, अपितु धर्म रहितता है अन्यथा (यदि धर्मरहितत्व वस्तु का स्वरूप नहीं मानते हैं तो) सुलभता से धर्मयुक्तता सिद्ध हो जाती है॥९॥ बौद्ध का कथन-कल्पना ज्ञान से अनारोपित, निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा विशद अवभासित और सकल धर्मों से रहित-पना ही वास्तविक, वस्तु का स्वरूप है इसलिए वस्तु का स्वरूप रहितपना नहीं है इस प्रकार इष्ट की सिद्धि होती है अर्थात् वस्तु धर्मरहित है, स्वभाव रहित नहीं है। बौद्ध मत में वस्तु का स्वभाव और धर्म भिन्न-भिन्न माना गया है अत: उनका कथन है कि नित्यादि वस्तु के धर्म कल्पना से आरोपित हैं, यह वस्तु का स्वभाव नहीं इसलिए निर्विकल्पस्वभाव से रहित वस्तु नहीं है अपितु कल्पनारोपित नित्यादि धर्मों से रहित वस्तु है। बौद्ध दर्शन में कल्पना से आरोपित वस्तु का स्वरूप नहीं माना है। वस्तु का स्वरूप कल्पना से आरोपित है, ऐसा हम नहीं कह रहे हैं। तथा कल्पित नि:शेष धर्मों से रहित वस्तु का स्वरूप मान लेने पर सम्पूर्ण धर्मों से युक्तता भी हमको अनिष्ट नहीं है क्योंकि कल्पित सकल धर्मयुक्त वस्तु के इष्टत्व है अर्थात् बौद्ध दर्शन में कल्पित धर्मयुक्त वस्तु को माना ही हैं। उस कल्पित धर्मयुक्त वस्तु के द्वारा वस्तुभूत अखिल(सम्पूर्ण) धर्म सहितता दूर करना शक्य नहीं है। क्योंकि वस्तु में कल्पित सम्पूर्ण धर्मों का रहितपनस्वरूप का उस वस्तुभूत अखिल धर्मों से सहितत्व के साथ अविनाभाव का अभाव है। अर्थात् जहाँ कल्पित धर्मों का अभाव है वहाँ वास्तविक धर्म ठहर नहीं सकते हैं, ऐसा नियम नहीं है अत: वस्तु में कल्पित धर्मों का सद्भाव होने से वास्तविक धर्मों का अभाव स्वयमेव सिद्ध हो जाता है। सम्पूर्ण वास्तविक धर्म के बिना भी वस्तु में कल्पित धर्मों की उपपत्ति (सिद्धि) हो जाती है। इस प्रकार कोई कहता है। जैनाचार्य इसका प्रतिवाद करते हैं-इस प्रकार वस्तु के स्वरूप का कथन करने वाले बौद्ध भी महामोह से अभिभूत मनवाले हैं। क्योंकि स्वयं वस्तु की परमार्थभूत सकल धर्मों के साथ तदात्मकता को स्वीकार करके भी उसको असंभव कहते हैं। अर्थात् वस्तु के धर्म को वास्तविक स्वीकार करके भी निषेध 1. वैभाषिक बौद्ध।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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