________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 301 विकल्पपरिनिष्ठितत्वे प्रत्यक्षार्थानामपि तत्स्यात् तेषां बाधकाभावात्। पारमार्थिकत्वे वा तत एव शब्दार्थानामपि तद्भवेदिति न प्रतिपादितविरोधाभावः। यदप्युक्तं प्रत्यक्षे सकलधर्मरहितस्य स्वलक्षणस्य प्रतिभासनान्न तत्रैकमनेकं वा रूपं वा परस्परसापेक्षं वा निरपेक्षं वा तद्रहितं वा प्रतिभातीति। तदपि मोहविलसितमेव, अनेकांतात्मकवस्तुप्रतीतेरपह्नवात् / को हि महामोहविडंबित: प्रतिभासमानमाबालमबाधितमेकमनेकाकारं वस्तु प्रत्यक्षविषयतयानादृत्य कथमप्यप्रतिभासमानं ब्रह्मतत्त्वमिव स्वलक्षणं तथा आचक्षीत ? अतिप्रसंगात् तथानुमानादागमाच्च भावस्यैकानेकरूपविशिष्टस्य प्रतीयमानत्वान्न “भावा येन निरूप्यते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः" इति वचनं नि:प्रमाणकमेवोररीकार्य, यतः स्वरूपवचनं सूत्रे मिथ्या स्यात् / यथा च प्रत्यक्षमनुमानमागमो और उभय धर्मों का तथा इन धर्मों स युक्त धर्मियों का यदि अनादिकालीन भाव, अभाव आदि की वासना से उत्पन्न हुए विकल्प ज्ञान द्वारा स्थित होना (मनगढन्त) माना जाता है, तो प्रत्यक्ष ज्ञान के विषयभूत अर्थों को भी असत्य विकल्पों के द्वारा निर्मित मानना पड़ेगा अर्थात् प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात पदार्थ भी वस्तुभूत नहीं होंगे। यदि बौद्ध कहे कि.प्रत्यक्ष पदार्थ वस्तुभूत हैं इसमें बाधक प्रमाण का अभाव है तो उसी प्रकार बाधक प्रमाण का अभाव होने से शब्द का वाच्यार्थ भी वास्तविक होगा अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान के विषयभूत पदार्थ को पारमार्थिक मानने पर शब्द के वाच्यार्थ को भी पारमार्थिक मानना चाहिए। इस प्रकार शब्द का वाच्यार्थ सिद्ध हो जाने पर बौद्धों की अपनी कही गयी 'अनादिवासनोद्भूत' इस कारिका से विरोध हुआ। बौद्ध इधर तो शब्द का वाच्यार्थ नहीं मानते हैं और उधर अनेक ग्रन्थों या वक्ताओं द्वारा स्वकीय तत्त्व का प्रतिपादन कराते हैं। इस प्रकार के प्रतिपादन से अपना ही विरोध हुआ। इस विरोध दोष का अभाव बौद्ध नहीं कर सकते हैं। तथा बौद्ध मत में जो यह कहा हुआ है कि-प्रत्यक्ष में सकल धर्म रहित कोरे स्वलक्षण का प्रतिभास होता है अत: उसमें एकरूप, अनेकरूप, परस्पर सापेक्ष, परस्पर निरपेक्ष, वा दोनों से रहित, कुछ भी स्वरूप प्रतिभासित नहीं होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि-इस प्रकार कहना केवल मोह का विलास है। क्योंकि यह कथन अनेक धर्मात्मक वस्तु की प्रतीति का लोप करने वाला है। मोह की विडम्बना से युक्त कोई पुरुष ही “बालगोपाल (सभी लोगों) तक बाधा रहित प्रतिभासमान, एक-अनेक आकार वाली, वस्तु प्रत्यक्ष विषय का अनादर करके किसी भी प्रकार से दृष्टिगोचर न होने वाले (प्रतिभासित नहीं होने वाले) ब्रह्माद्वैत के समान, बौद्ध के द्वारा अभिमत स्वलक्षण को सर्व धर्मों से रहित कहता है अर्थात् मोही अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही अनुभव में आने वाली अनेकान्तात्मक वस्तु को छोड़कर एकान्तवादी बौद्ध द्वारा कथित वस्तु का विश्वास करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं। यदि प्रमाण प्रसिद्ध पदार्थों का तिरस्कार करके प्रमाण से बाधित पदार्थों की कल्पना की जायेगी तो अतिप्रसंग दोष आयेगा। सांख्य, नैयायिक आदि सभी के द्वारा स्वीकृत पदार्थों को सत्य मानना पड़ेगा। तथा-अनुमान और आगम प्रमाण से एक और अनेक धर्म से विशिष्ट वस्त के प्रतीयमान हो जाने से भी “पदार्थ जिस स्वरूप से कहा जाता है, वास्तव में उसका वह स्वरूप नहीं है" यह बौद्ध का वचन अप्रामाणिक है अतः स्वीकार नहीं करना चाहिए जिससे कि सूत्रकार का निर्देश आदि सूत्र' में निर्देश शब्द से स्वरूप का कथन करना मिथ्या हो सकता हो अर्थात् बौद्धों के द्वारा स्वीकृत स्वरूप रहित अव्यक्त तत्त्व सिद्ध नहीं हो सकता है।