________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 298 न व्याघातो नाम, यत एव हि तस्याभावगतिस्तत एव भावस्यापि गतौ व्याघातो नान्यथेति चेन्न, सामस्त्येन तस्याभावगतौ पुनर्भावगतेाहतेरवस्थानात् / प्रतिनियतदेशादितया तु कस्यचिदभावगतावपि न भावगतिर्विहन्यात इति युक्तं / कथमिदानी “संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित्' इति मतं न विरुध्यते? तुच्छाभावस्य प्रतिषेध्यस्याभावेपि प्रतिषेधसिद्धेरन्यथा तस्य शब्दार्थतापत्तेरिति चेन्न, संज्ञिनः सम्यग्ज्ञानवतः प्रतिषेध्यादृते न क्वचिदंततर्बहिर्वा प्रतिषेध इति व्याख्यानात्तदविरोधात् / सकलप्रमाणाविषयस्य तुच्छाभावस्य प्रतिषेधः स्वयमनुभूतसकलप्रमाणाविषयत्वेन तदनुवदनमेवेति स्यात्प्रतिषेधादृते प्रतिषेधः स्यानेत्यनेकांतवादिनामविरोधः शंका : वस्तु स्वरूप के अभाव का विधान करने से ही तुच्छाभाव के अभाव की ज्ञप्ति हो जाती है और तुच्छाभाव के अभाव के ज्ञान से तुच्छाभाव की ज्ञप्ति हो जाती है। इसलिए इसमें व्याघात दोष नहीं आता है। जिस रूप से उस तुच्छाभाव के अभाव की ज्ञप्ति होती है उसी रूप से तुच्छाभाव के भाव की ज्ञप्ति मान ली जाती है तब तो व्याघात दोष अवश्य आता है परन्तु अन्यथा मानने से व्याघात दोष नहीं आता समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण रूप से तुच्छाभाव अभाव रूप ही जाना जाता है, तो फिर तुच्छाभाव के भाव की ज्ञप्ति करने से व्याघात दोष वैसे का वैसा ही रह जाता है। प्रतिनियत देशकाल आदि की अपेक्षा से किसी के अभाव की ज्ञप्ति हो जाने पर भी पुनः किसी अन्य देशकाल आदि और अन्य अवस्था में उसके भाव का ज्ञान कर लेने में व्याघात दोष नहीं आता है, यह कथन ठीक है। अर्थात् किसी देश काल में अभाव मानना और किसी देश आदि में उनका सद्भाव मानना व्याघात दोष से युक्त नहीं है अपितु सर्वथा अभाव रूप तुच्छाभाव को सद्भाव रूप मानना व्याघात दोष से युक्त है। . किसी का प्रश्न है-“प्रतिषेध करने योग्य पदार्थ बिना संज्ञा (नाम) वाले का कहीं भी निषेध नहीं होता है" यह जैनाचार्यों का कथन विरुद्ध क्यों नहीं होगा, अर्थात् तुच्छाभाव के नहीं होने पर तुच्छाभाव का निषेध करने पर जैनाचार्यों के स्ववचन से यह बाधित होगा कि जो प्रमेय नहीं है उसका निषेध नहीं किया जा सकता, अन्यथा (तुच्छाभाव को निषेध्य मानकर यदि निषेध किया जायेगा तो) वाचक संज्ञा वाले तुच्छाभाव को शब्द के वाच्य अर्थ का प्रसंग आयेगा। जैनाचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि “संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित्" इस कारिका का अर्थ समन्तभद्राचार्य ने इस प्रकार किया है “संज्ञिनः अर्थात् समीचीन ज्ञान वाले निषेध्य के बिना कहीं भी अंतरंग वा बहिरंग पदार्थ का निषेध नहीं होता है" ऐसा व्याख्यान करने से आचार्यों के कथन से हमारे कथन में और हमारे कथन से आचार्य देव के कथन में विरोध नहीं आता है। भावार्थ : सर्वथा एकान्त के समान तुच्छाभाव सम्यग् ज्ञान का विषय नहीं है अतः निषेध्य के बिना भी उसका निषेध किया जा सकता है। सकल प्रमाणों के अविषयभूत तुच्छाभाव का निषेध स्वयं अनुभूत सम्पूर्ण प्रमाणों का विषय न होने से केवल अनुवदन करना मात्र है अर्थात् तुच्छाभाव किसी भी प्रमाण का विषय नहीं है, ऐसा कथन करके