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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 297 प्रतिषेधसिद्धेः क्वचिदनेकांतविधानात् / सर्वथैकांतप्रतिषेधसिद्धिवत् तथा तस्य मुख्यः प्रतिषेधो न स्यादिति चेन्न किंचिदनिष्टं, न हि सर्वस्य मुख्येनैव प्रतिषेधेन भवितव्यं गौणेन वेति नियमोस्ति यथाप्रतीतस्योपगमात् / ननु गौणेपि प्रतिषेधे तुच्छाभावस्य शब्दार्थत्वसिद्धिर्गम्यमानस्य शब्दार्थत्वाविरोधात् सर्वथैकांतवदिति चेन्न, तस्यागम्यमानत्वात्तद्वत् / यथैव हि वस्तुनोनेकांतात्मकत्वविधानात् सर्वथैकांताभावो गम्यते न सर्वथैकांतस्तथा वस्तुरूपस्याभावस्य विधानात्तुच्छाभावस्याभावो न तु स गम्यमानः / ननु तुच्छाभावस्याभावगतौ तस्य गतिरवश्यंभाविनी प्रतिषेध्यनांतरीयकत्वात् प्रतिषेधस्येति चेन्न, व्याघातात् / तुच्छाभावस्याभावश्च कुतश्चिद्गम्यते भावश्चेति को हि ब्रूयात्स्वस्थः / ननु वस्तुरूपस्याभावस्य विधानात्तुच्छाभावस्याभावगतिस्तद्गतेस्तस्य गतिस्ततो (अनेकान्त का विधान करने पर) सर्वथा एकान्त का निषेध स्वयमेव हो जाता है। ऐसा होने पर तुच्छाभाव का मुख्य रूप से निषेध नहीं होता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि यह कथन स्याद्वाद में अनिष्ट नहीं है। सर्व निषेध मुख्य रूप से ही होना चाहिए या गौण रूप से ही होना चाहिए, ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि जिस निषेध की मुख्य या गौण रूप से प्रतीति होती है, वैसा ही मान लिया जाता है। शंका : तुच्छाभाव का गौण रूप से निषेध करने पर भी शब्द का वाच्यार्थ सिद्ध हो जाता है क्योंकि शब्द के द्वारा कथित पदार्थ के समान शब्द के द्वारा गम्यमान पदार्थ को भी शब्द का वाच्यार्थपना प्राप्त होने में कोई विरोध नहीं है जैसे सर्वथा एकान्त को शब्द का वाच्यार्थ मानने में विरोध नहीं है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि जैसे सर्वथा एकान्त, शब्द के द्वारा जानने योग्य नहीं है वैसे ही तुच्छाभाव, शब्द के द्वारा गम्यमान नहीं है क्योंकि जिस प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तु का कथन करने पर सर्वथा एकान्त का अभाव जान लिया जाता है, सर्वथा एकान्त का अस्तित्व नहीं जाना जाता है, अपितु सर्वथा एकान्त का निषेध होता है। उसी प्रकार वस्तुत्व रूप के अभाव की विधि होने पर तुच्छाभाव रूप अभाव का अभाव सिद्ध हो ही जाता है, परन्तु तुच्छाभाव का अभाव तो कैसे भी गम्यमान नहीं होता है, जाना नहीं जाता है अर्थात् जैसे सर्वथा एकान्त प्रमेयत्व धर्म से रहित है वैसे ही तुच्छाभाव प्रमेयत्व धर्म से रहित है, ज्ञान के द्वारा गम्य नहीं है क्योंकि वह प्रमेय नहीं है और जो प्रमेय नहीं होता वह ज्ञान का विषय नहीं होता। . - शंका : तुच्छाभाव के अभाव का ज्ञान करने पर तुच्छाभाव की गति (ज्ञान) अवश्यंभावी है, क्योंकि निषेध्य (निषेध करने योग्य) पदार्थ के साथ रहता है, अर्थात् अभाव का निषेध तब ही हो सकता है जबकि निषेध्य (जिसका निषेध किया जाता है उस अभाव पदार्थ) का अस्तित्व होता है। समाधान : ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है अर्थात् जिसका अस्तित्व है उसका निषेध कैसे हो सकता है, किसी कारण से तुच्छाभाव को अभाव रूप कथन करने वाला और तुच्छाभाव की सत्ता का भी कथन करने वाला स्वस्थ कैसे हो सकता है अर्थात् तुच्छाभाव सर्वथा अभावरूप ही है और शब्द का विषय होने से सत्त्व रूप भी है ऐसा कहने वाला ज्ञानी नहीं हो सकता ?
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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