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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 295 भावेष्वनवस्थितावनेकरूपस्य विधिस्तदनवस्थितावेकरूपस्य निवेदितः समानत्वान्यायस्य / ननु वाध्यक्षे सकलधर्मरहितस्य स्वलक्षणस्य प्रतिभासनात् न तत्रैकमनेकं वा रूपं परस्परं सापेक्षं निरपेक्ष वा तद्रहितत्र वा प्रतिभाति कल्पनारोपितस्य तु तथा प्रतिभासनस्य तत्त्वतोसत्त्वात् / संवृत्त्या तत्सद्भावोभीष्ट एव / तथा पतदभावयोरनेकरूपतदभावयोश्चैकानेकरूपयोः परस्परव्यवच्छेदस्वभावयोरेकतरस्य प्रतिषेधेऽन्यतरस्य विधेरवश्यंभावेपि न किंचिद्विरुद्धं, भावाभावोभयव्यवहारस्यानादिशब्दविकल्पवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितस्य शब्दार्थतयोपगमात् / तदुक्तं / “अनादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितः / शब्दार्थस्त्रिविधो धर्मो भावाभावोभयाश्रयः // " इति केचित् / तेपि नानवद्यवचसः / सुखनीलादीनामपिरूपाणां कल्पितत्वप्रसंगात् / स्पष्टमवभासमानत्वान्न तेषां कल्पितत्वमिति चेन्न, स्वप्नावभासिभिरनेकांतात् / न हि चैषामपि कल्पितत्वं मानसविभ्रमात्मना स्वप्नस्योपगमात् तस्य करणजविभ्रमात्मनोपगमे वा कथमिंद्रियजविभ्रमात्तद्धांतेः पृथक् अभाव की सिद्धि न होने पर अनेक स्वभाव की सिद्धि होती है और अनेक स्वभाव की सिद्धि न होने पर एक स्वभाव की सिद्धि हो जाती है, यह न्याय समान है अर्थात् एकानेक धर्मात्मक वस्तु अनायास सिद्ध हो जाती है। शंका : प्रत्यक्ष ज्ञान में सम्पूर्ण धर्मों से रहित स्वलक्षण का प्रतिभास होता है। उस प्रत्यक्ष ज्ञान में एक रूप, अनेक रूप वा परस्पर सापेक्ष वा निरपेक्ष और सापेक्ष निरपेक्ष रहित वस्तु का प्रतिभास नहीं होता है क्योंकि एक अनेक आदि प्रतिभास कल्पना से आरोपित होने से असत् रूप हैं, वास्तविक नहीं हैं, अत: व्यवहार नय से कल्पित एकत्व अनेकत्व का संवृत्ति से सद्भाव इष्ट है, वास्तव में नहीं। इसलिए परस्पर व्यवच्छेदात्मक एक स्वभाव और उसका अभाव, अनेक रूप और उसका अभाव और एक स्वरूप और अनेक स्वरूप में किसी एक का निषेध करने पर शेष दूसरे की विधि करना अवश्यंभावी हो जाना भी किंचित् विरुद्ध नहीं है क्योंकि भावात्मक, अभावात्मक और उभयात्मक व्यवहार तो अनादि कालीन शब्द और विकल्प ज्ञान की वासनाओं से उत्पन्न विकल्पों में स्थित हैं। उनके व्यवहार को बौद्ध दर्शन में शब्द के वाच्यार्थ से स्वीकार किया है, वास्तविक रूप से नहीं। सो ही बौद्ध ग्रन्थ में कहा है-भाव, अभाव और उभयात्मक का आश्रय लेकर कल्पित तीन प्रकार का धर्म ही शब्द का वाच्यार्थ है, जो आत्मा में अनादि कालीन मिथ्या संस्कार से उत्पन्न वासना है, वास्तविक नहीं है। . समाधान : जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों का यह कथन भी निर्दोष नहीं है, अर्थात् शब्द के वाच्यार्थ को बौद्ध वस्तुभूत नहीं मानते हैं अतः उनका कथन निस्सार है, क्योंकि विकल्प ज्ञान को मिथ्या वासना मानने पर प्रत्यक्ष ज्ञान से ज्ञात अंतरंग सुख, ज्ञान आदि और बहिरंग नील, पीत आदि स्वलक्षणों के भी कल्पितपने का प्रसंग आयेगा। “स्पष्ट अवभास होने से सुखादि और नीलादिक के कल्पितत्व नहीं है" ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर स्वप्न प्रतिभासित सुखादि और नीलादि के साथ व्यभिचार आयेगा अर्थात् स्वप्न में दृष्ट नीलादि पदार्थों का स्पष्ट प्रतिभास है, परन्तु अकल्पित (वास्तविक) नहीं है, अपितु कल्पित है अत: जो-जो अकल्पित है उनका ही स्पष्ट प्रतिभास (निर्विकल्प) होता है, कल्पित का
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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