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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 294 शक्यत इति विशेषणत्वपक्ष एव श्रेयान् / सकलविशेषणरहितत्वाद्वस्तुनो न संभवत्येव निर्दिश्यमानरूपमिति मतमपाकुर्वन्नाह;भावा येन निरूप्यंते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः / तत्स्वरूपवचो मिथ्येत्ययुक्तं निःप्रमाणकम् // 7 // यत्तदेकमने च रूपं तेषां प्रतीयते। प्रत्यक्षतोनुमानाच्चाबाधितादागमादपि // 8 // ___ न हि प्रत्यक्षानुमेयागमगम्यमानानामर्थानां प्रत्यक्षानुमानागमैरेकमनेकं च रूपं परस्परापेक्षं न प्रतीयते परस्परनिराकरणप्रवणस्यैव तस्याप्रतीतेः। न चाप्रतीयमानस्य सर्वथैकांतस्याप्यवस्थितौ प्रतीयमानस्यापि जात्यंतरस्यावस्थिति म स्वेष्टरूपस्यापि तत्प्रसंगात् / तथा चैकरूपाभावस्य भावेष्वनवस्थितौ स्यादेवैकरूपस्य विधिस्तदनवस्थितौ अनेकरूपस्य परस्परव्यवच्छे दरूपयोरेकतरप्रतिषेधोन्यतरस्य विधेरवश्यं भावान्नीलत्वानीलत्ववत् परस्परव्यवच्छेदस्वभावौ एकरूपभावाभावी प्रतीतो, तदनेनानेकरूपाभावस्य आदि को पदार्थों का विशेषण मान लेने पर जीवादिक में कर्म साधन घटित हो सकता है वा जीवादिक पदार्थों में कर्म साधन जानना शक्य हो सकता है इसलिए सूत्र का अर्थ करते समय करण साधन (निर्देश आदि के द्वारा जीवादि पदार्थों का अधिगम होता है) की अपेक्षा विशेषण निर्देश आदि से विशिष्ट जीवादि पदार्थों का अधिगम होता है, यह पक्ष श्रेष्ठ है। (जैन सिद्धान्त के अनुसार सारी व्यवस्था सुघट है, एकान्त पक्ष में नहीं।) सकल विशेषण रहित होने से वस्तु का निर्देश (कथन) करना संभव नहीं है (क्योंकि वस्तु अवक्तव्य है।) ऐसा कहने वालों के मत का निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं : बौद्ध का कथन है-जिस स्वरूप के द्वारा वस्तु का निरूपण किया जाता है, वास्तव में वह वस्तु का स्वरूप नहीं है इसलिए वस्तु के स्वरूप का कथन करना मिथ्या (असत्य) है। आचार्य कहते हैं कि बौद्ध का यह कथन अयुक्त है, अप्रामाणिक है, प्रमाणसिद्ध नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण और अबाधित (निर्दोष) आगम प्रमाण से एक और अनेक स्वरूप वस्तु की प्रतीति होती है अर्थात् वस्तु अनेक धर्मात्मक प्रतीत हो रही है॥७-८॥ प्रत्यक्ष, अनुमेय और आगम गम्य पदार्थ परस्पर में सापेक्ष एक और अनेक स्वरूप प्रत्यक्ष ज्ञान, अनुमान ज्ञान और आगम ज्ञान के द्वारा प्रतीत नहीं होते हैं, ऐसा नहीं है अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण के द्वारा एक और अनेक स्वरूप वस्तु प्रतीत होती है अपितु परस्पर निराकरण करने में प्रवण (चतुर) एक और अनेक की पृथक् प्रतीति नहीं होती है अर्थात् सर्वथा एक या अनेक रूप नहीं है। अप्रतीयमान सर्वथा एकान्तो की व्यवस्था न होने पर प्रतीयमान (प्रतीति में आने वाले) जात्यन्तर (एकानेक धर्मात्मक) वस्तु की व्यवस्था कैसे नहीं हो सकती अर्थात् एकानेक धर्मात्मक वस्तु की व्यवस्था सिद्ध है। अन्यथा (यदि अनेक धर्मात्मक वस्तु स्वीकार नहीं करते हैं तो) स्व इष्ट (स्वलक्षण, क्षणिकत्व आदिक) की भी अव्यवस्था होने का प्रसंग आता है अर्थात् क्षणिकत्व की सिद्धि नहीं होती। तथा च-पदार्थों में एक रूप के अभाव की व्यवस्था न होने पर एक रूप भाव की विधि अवश्य हो जाती है और वस्तु के एक रूप के सद्भाव की व्यवस्था न होने पर अनेक रूप की विधि हो जाती है। परस्पर एक दूसरे के व्यवच्छेद स्वरूप दो पदार्थों में से किसी एक का निषेध करने पर शेष दूसरे की विधि अवश्य हो जाती है। जैसे कोई भी नील और अनील दोनों से रहित नहीं हो सकता। इसी प्रकार एकरूप का भाव (विधि) और अभाव (निषेध) भी परस्पर व्यवच्छेद स्वभाव वाले प्रतीत होते हैं इसलिए इस कथन से यह भी निरूपण कर दिया गया है कि जब वस्तु के अनेक स्वरूप के
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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