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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 293 स्वाभिमतधर्माणामपि करणत्वं मा भूदित्यपि चोद्यमानमनवकाश्यं स्यात् / नन्वेवमपरापरविशेषणकल्पनायामप्यनवस्था विशेषणांतररहितस्य वा जीवादे: स्वाभिमतधर्मविशेषणैः प्रतिपत्तौ तैरपि रहितस्य प्रतिपत्तिरस्तु विशेषाभावादिति चेन्न, विशेष्यात् कथंचिदभिन्नत्वाद्विशेषणानां / वस्तुतोऽनंता विधयोपि हि धर्मा निर्देशादिभिः संगृहीता विशेषणान्येव, तद्व्यतिरिक्तस्य धर्मस्यासंभवात् / तत्र जीवादिवस्तु विशेष्यमेव द्रव्यार्थादेशात् निर्देश्यत्वादि विशेषणमेव पर्यायार्थात् / प्रमाणादेशादपि विशेषणविशेष्यात्मकं वस्तु जात्यंतरमिति प्ररूपणायां नोक्तदोषावकाशः / नन्वेवं निर्देशादिधर्माणां करणत्वपक्षेपि न परापरधर्मकरणत्वपरिकल्पनादनवस्था तद्व्यतिरेकेण परापरधर्माणामभावात्तेषां तु करणत्वं तैरधिगम्यमानस्यार्थस्य कर्मता नयादेशात् , प्रमाणादेशात्तु कर्मकरणात्मकं जात्यंतरं वस्तु प्ररूप्यते इति न किंचिदवद्यं / नैतत्साधीयः। करणत्वे निर्देशादीनां कर्मसाधनतानुपपत्तेः विशेषणत्वे तु तदुपपत्तेः। विशेषणविशेष्यभूतस्य जीवाद्यर्थस्य कर्मसाधनोधिगमः प्रतिपत्तुं शंका : इस प्रकार करण पक्ष के समान विशेषण पक्ष में परापर विशेषण की कल्पना करने पर अनवस्था दोष आ सकता है अर्थात् उत्तरोत्तर विशेषणों की कल्पना की आकांक्षा बढ़ती जायेगी। यदि विशेषणान्तरों से रहित जीवादिक की अपने अभिमत निर्देश आदि विशेषणों के द्वारा प्रतिपत्ति (ज्ञान) होना मानने पर तो निर्देश आदि विशेषणों से रहित जीवादिक की प्रतिपत्ति स्वीकार करनी चाहिए। विशेषणान्तरों में और निर्देश आदि विशेषणों में कोई अन्तर नहीं है। समाधान : ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि विशेष्य से विशेषणों को कथंचित् अभिन्न माना है। वास्तव में विधि (अस्ति) रूप अनन्त धर्म निर्देश आदि के द्वारा ही गृहीत होते हैं, वे सर्व वस्तु के विशेषण ही हैं। (जैसे जीव है, धर्म है इत्यादि सर्व सत्त्व स्वरूप पदार्थ के विशेषण ही हैं।) क्योंकि विशेषण रहित वस्तुधर्म की असंभवता है अर्थात् विशेष के बिना कोई सामान्य धर्म रहता ही नहीं है अत: द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा जीवादि वस्तु विशेष है और पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से निर्देश्यत्वादि जीवादि वस्तु के विशेषण हैं तथा द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु को एक साथ जानने वाले प्रमाण वाक्य की अपेक्षा विशेष्य विशेषणात्मक (सामान्यविशेषात्मक) जात्यन्तर वस्तु है अत: वैशेषिक आदि के द्वारा कथित दोषों का स्याद्वाद कथन में अवकाश नहीं हो सकता। शंका : इस प्रकार तो निर्देश आदि धर्मों को करणत्व मानने पर भी उत्तरोत्तर धर्मों के करणत्व की कल्पना से उत्पन्न अनवस्था दोष नहीं आ सकता क्योंकि उन निर्देश आदि कर्मों से भिन्न स्थित पर-अपर (दूसरे) धर्मों (करण) का अभाव है। उन निर्देश आदिकों को तो करणत्व के द्वारा ज्ञात अर्थ को कर्मत्व नय विवक्षा से है। यदि नय विवक्षा को गौण कर प्रमाण अपेक्षा से विचार किया जाता है तब तो कर्म और करण स्वरूप होकर तीसरी जात्यन्तर वस्तु का निरूपण किया जाता है, इसमें अनवस्था आदि कोई दोष नहीं आते हैं। समाधान : ऐसा कहना श्रेष्ठतम नहीं है क्योंकि निर्देश आदिकों का करणत्व मान लेने पर कर्म साधनपना नहीं हो सकता है। यदि निर्देश आदि को विशेषण मान लिया जाता है तो कर्मसाधनत्व घटित हो सकता है। इसलिए विशेषण विशेष्यरूप जीवादि पदार्थों का कर्म साधन अधिगम होता है अर्थात् निर्देश
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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