________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 292 समभिधीयमाना जीवादे: कर्मणः पर्यायार्थाद्भिन्ना नेष्यते / द्रव्यार्थात्तु ततस्तेषामभेदेपि भेदोपचारात्कर्मकरणनिर्देशघटनेति केचित् / परे पुनः कर्मसाधनाधिगमपक्षे निर्देश्यत्वादीनां कर्मतया प्रतीते: करणत्वमेव नेच्छंति तेषां विशेषणत्वेन घटनात् / न हि यथाग्निरुष्णत्वेन विशिष्टोधिगमोपायैरधिगम्यत इति प्रतीतिरविरुद्धा तथा सर्वेर्था निर्देश्यादिभिर्भावैरधिगम्यंत इति निर्णयोप्यविरुद्धो नावधार्यते / तथा सति परापरकरणपरिकल्पनायां मुख्यतो गुणतो वानवस्थाप्रसक्तिरपि निवारिता स्यात् / तदपरिकल्पनायां वा किंच-करणत्व से कथित निर्देशत्व, स्वामित्व आदि कर्मस्वरूप धर्मी से पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कथंचित् भिन्न नहीं है ऐसा नहीं समझना चाहिए अपितु कथंचित् भेद है, ऐसा समझना चाहिए। अतः द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा जीवादिक पदार्थों से निर्देशत्व आदि धर्मों का अभेद होने पर भी भेद का उपचार करने पर कर्म और करण रूप से निर्देश (कथन) घटित हो जाता है, ऐसा किन्हीं आचार्यों का मत है। वह खण्डनीय नहीं है अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा धर्म-धर्मी, गुण-गुणी में अभेद है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भेद है ऐसा जानना चाहिए। कोई कर्मसाधन व्युत्पत्ति से सिद्ध अधिगम का पक्ष लेकर निर्देश आदि की कर्म रूप से प्रतीति होती है अत: निर्देश आदि को करणत्व रूप से स्वीकार नहीं करते हैं उनके मत में निर्देश आदिकों को विशेषण रूप से घटित किया जाता है अर्थात् निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन विशेषणों से विशिष्ट अर्थ का प्रमाण और नय के द्वारा अधिगम होता है, यह सूत्र का अर्थ किया जाता है। क्योंकि जैसे उष्णत्व नाम के विशेषण से विशिष्ट अग्नि प्रमाण और नय रूप अधिगम के उपायों के द्वारा जानी जाती है, इस प्रकार की प्रतीति अविरुद्ध है (विरुद्ध नहीं) है उसी प्रकार सर्व पदार्थ निर्देश्य आदि भावों (विशेषणों) के द्वारा विशिष्ट होकर अधिगम उपायों के द्वारा जाने जाते हैं, यह निर्णय भी अविरुद्ध नहीं है ऐसा नहीं है अपितु अविरुद्ध है और ऐसा होने पर परापर करण की परिकल्पना में मुख्य और गौण रूप से अनवस्था दोष का भी निवारण कर दिया जाता है। अर्थात् जीवादि पदार्थों को जानने के लिए निर्देशत्व आदि करणों की आवश्यकता है, उसी प्रकार निर्देश आदि करणों को जानने के लिए दूसरे करणों की आवश्यकता होगी और उनको जानने के लिए दूसरे करणों की / इस प्रकार आगत अनवस्था दोष का भी निर्देश आदिक को कथंचित् करणत्व और कथंचित् कर्मत्व मानने से निराकरण हो जाता है। आगे आने वाले करणों की कल्पना नहीं करने पर अनवस्था दोष तो नहीं होगा, परन्तु स्वाभिमत धर्मों के भी करणत्व नहीं हो, ऐसी शंका को अवकाश भी नहीं रहेगा अर्थात् निर्देश आदिक को पदार्थों का विशेषण मान लेने पर अनवस्था दोष भी नहीं आता है और धर्म कारण नहीं होंगे यह प्रश्न भी नहीं उठ सकता है अतः कर्मस्थ अधिगम के पक्ष में निर्देश आदिक को अधिगम के कारण न मान कर पदार्थ के विशेषण मानने चाहिए। यह भी किसी का कथन, आचार्य कहते हैं, ठीक है। .