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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 291 स्वार्थानुमानं मतिपूर्वकं परार्थानुमानं चेति, तद्भेदत्वमिष्टमेव निर्देशादीनां / प्रामाण्यं पुनः श्रुतस्याग्रे समर्थयिष्यत इति नेह प्रतन्यते / कर्मस्थः पुनरधिगमोर्थानामधिगम्यमानानां स्वभावभूतैरेव निर्देशादिभिः कात्स्न्यैकदेशाभ्यां प्रमाणनयविषयैर्व्यवस्थाप्यते / निर्देश्यमानत्वादिभिरेव धर्मैरानामधिगतिप्रतीतेः। कर्मत्वात्तेषां कथं करणत्वेन घटनेति चेत्, तथा प्रतीतेः / अग्नेरुष्णत्वेनाधिगम इत्यत्र यथा / नन्वग्नेः कर्मणः करणमुष्णत्वं भिन्नमेवेति चेत् न, तद्भेदैकांतस्य निराकरणात् / कथंचिद्भेदस्तु समानोन्यत्र / न हि निर्देशत्वादयो धर्माः करणतया प्रश्नोत्तर व्यवहार श्रुत रूप नहीं है, किन्तु स्वार्थ और परार्थानुमानस्वरूप श्रुतज्ञान है (वक्ता का वचन स्वार्थानुमान है और श्रोता का वचन व्यवहार परार्थानुमान है।) ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि सर्वत्र अनुमान ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती है अतः अत्यन्त परोक्ष स्वर्गादिक पदार्थों में अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होने से प्रश्नोत्तर व्यवहार के अभाव का प्रसंग आयेगा अर्थात् उन परोक्ष पदार्थों के जानने का प्रश्न भी नहीं उठ सकता क्योंकि वचनों के द्वारा ही उन परोक्ष पदार्थों का आगम ज्ञान होता है। _ किंच-मतिपूर्वक होने वाले स्वार्थानुमान और परार्थानुमान भी श्रुतज्ञान से भिन्न नहीं हैं। (क्योंकि अर्थ से अर्थान्तर का ज्ञान होना श्रुतज्ञान है और साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान ज्ञान है इसलिए साध्य और साधन की भेद विवक्षा से उत्पन्न अनुमानज्ञान श्रुतज्ञान रूप ही है।) अत: निर्देश, साधन आदि अधिगम के उपाय श्रुतज्ञानं के भेद मानना ही इष्ट है। इसकी प्रमाणता का वर्णन आगे श्रुतज्ञान के प्रकरण में करेंगे अत: यहाँ विस्तार रूप से कथन नहीं कर रहे हैं। भावार्थ : सकर्मक धातु का शुद्ध अर्थ कर्ता और कर्म दोनों में रहता है अत: कर्ता में रहने वाले अर्थ का निरूपण कर दिया है, अब कर्म में स्थित अर्थ का वर्णन करते हैं। ___ अधिगम्य (जानने योग्य) पदार्थों का पूर्ण स्वरूप या एकदेश से होने वाला कर्मस्थ अधिगम (अनुभव या ज्ञान) प्रमाण और नय के विषयभूत निर्देश आदि के द्वारा व्यवस्थित किया जाता है। क्योंकि निर्देश (कथन) करने योग्य धर्मों (वस्तु स्वरूप) के द्वारा पदार्थों का अधिगम होना प्रतीत होता है। अर्थात् आत्मा निर्देश आदि के द्वारा जीवादिक पदार्थों को जानता है। शंका : निर्देश आदिक जब कर्मस्वरूप पदार्थों का स्वभाव है, तब उनके करणत्व कैसे घटित हो सकता है ? समाधान : निर्देश आदि को भेदस्वरूप से प्रतीति हो रही है अत: ये निर्देश आदि करण स्वरूप हैं जैसे अग्नि उष्णत्वरूप करण (साधन) के द्वारा जानी जाती है अत: अग्नि का उष्णत्व करण साधन है। उसी प्रकार निर्देश आदि के द्वारा पदार्थों का अधिगम होता है अत: निर्देश आदि करण स्वरूप हैं। शंका : अग्निस्वरूप कर्म से उष्णत्व रूप करण सर्वथा भिन्न है, क्योंकि गुण-गुणी में सर्वथा भेद है ? समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि गुण-गुणी के भेद एकान्त का पूर्व में खण्डन कर चुके हैं अर्थात् गुण-गुणी में सर्वथा भिन्नता नहीं है क्योंकि इसका पूर्व में वर्णन कर चुके हैं। गुण-गुणी में लक्ष्य, लक्षण, संज्ञा, प्रयोजन आदि की अपेक्षा कथंचित् भेद है कथंचित् अभेद है। उसी प्रकार निर्देश आदि में भी कर्म से कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद है क्योंकि ये समान ही हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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