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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 290 साक्षात्तस्यानिंद्रियमतिपूर्वकत्वात् परंपरया तु तत्पूवकत्वं नानिष्टं / शब्दात्मनस्तु श्रुतस्य साक्षादपि नावधिमनः पर्ययपूर्वकत्वं विरुध्यते केवलपूर्वकत्ववत् / ततो मुख्यतः श्रुतस्यैव भेदा निर्देशादयः प्रतिपत्तव्याः किमुपचारेण, प्रयोजनाभावात् / तत एव श्रुतैकदेशलक्षणनयविशेषाश्च ते व्यवतिष्ठते। येषां तु श्रुतं प्रमाणमेव तेषां तद्वचनमसाधनांगतया निग्रहस्थानमासज्यत इति क्वचित्कथंचित्प्रश्नप्रतिवचनव्यवहारो न स्यात् / स्वपरार्थानुमानात्मकोसौ इति चेन्न, तस्य सर्वत्राप्रवृत्तेरत्यंतपरोक्षेष्वर्थेषु तदभावप्रसंगात् / न च श्रुतादन्यदेव भी अर्थ को प्रत्यक्ष करके श्रुतज्ञान के द्वारा विचार करके वक्ता निर्देश आदि के द्वारा वस्तु का कथन करता है।(अत: निर्देश आदिक अवधिज्ञान और मनःपर्यय के विशेष (भेद) क्यों नहीं माने जाते हैं।) ऐसा कहना उचित नहीं है-क्योंकि ऐसा मानने पर श्रुतज्ञान के भी अवधि, मन:पर्यय ज्ञानपूर्वक होने का प्रसंग आता है परन्तु श्रुतज्ञान साक्षात् मानसिक मति पूर्वक होता है। परम्परा से मन:पर्यय ज्ञान का कारण मानना अनिष्ट नहीं है। अर्थात् अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान भी परम्परा से श्रुतज्ञान के कारण हैं ऐसा मानने में कोई बाधा नहीं है। शब्दात्मक और ज्ञानात्मक के भेद से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है। ज्ञानात्मक श्रुतज्ञान का साक्षात् कारण मानस श्रुत ज्ञान है और परम्परा कारण चाक्षुष प्रत्यक्ष अवधि ज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान आदि भी हो सकते हैं किन्तु शब्दात्मक श्रुतज्ञान का साक्षात् कारण भी अवधि ज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान को मानने में कोई विरोध नहीं है। जैसे अर्हन्त भगवान केवलज्ञान द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का (सकल प्रत्यक्ष के द्वारा) शब्दात्मक द्वादशांग श्रुतज्ञान का उपदेश देते ही हैं अत: जिस प्रकार शब्दात्मक श्रुतज्ञान का केवलज्ञान साक्षात् कारण है वैसे अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान भी शब्दात्मक श्रुतज्ञान के साक्षात् कारण हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है (ज्ञानात्मक श्रुतज्ञान का कारण मन-इन्द्रियजन्य मतिज्ञान है अतः केवली भगवान के ज्ञानात्मक श्रुतज्ञान नहीं है।) इससे यह सिद्ध होता है कि मुख्यतः निर्देश आदि श्रुतज्ञान के ही भेद हैं, मतिज्ञान के नहीं; ऐसा जानना चाहिए, उपचार से परम्परा मतिज्ञान को कारण मानने में कोई लाभ नहीं है। इसलिए निर्देश आदि श्रुत के एकदेश लक्षण नय के भेद हैं यही व्यवस्थित है-अर्थात् निर्देश आदि को श्रुतज्ञान का भेद मानने पर वे नयात्मक भी हो सकते हैं। जिनके मत में श्रुतज्ञान ज्ञानात्मक (प्रमाणस्वरूप) ही है (नयात्मक और शब्दात्मक नहीं है), उनके मत में निर्देश आदि का कथन करना साधन (हेतु) का अंग न होने से निग्रह स्थान को प्राप्त हो जाता है और ऐसा होने पर कहीं भी किसी भी प्रकार से प्रश्न, उत्तर, प्रत्युत्तर के बोलने का व्यवहार नहीं हो सकता है अर्थात् ज्ञानात्मक श्रुत का तो उच्चारण होता नहीं है क्योंकि वह स्वार्थ ज्ञान है जैसे मति आदि ज्ञान और श्रुतज्ञान को शब्दात्मक माना नहीं है अतः प्रश्न, उत्तर आदि व्यवहार का लोप हो जायेगा।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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