SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 288 क्वेति पर्यनुयोगे तु वचोधिकरणं विदुः / कियच्चिरमिति प्रश्ने प्रत्युत्तरवचः स्थितिः॥ 4 // कतिधेदमिति प्रश्ने वचनं तत्त्ववेदिनाम् / विधानं कीर्तितं शब्दं तत्त्वज्ञानं च गम्यताम् // 5 // किं कस्य केन कस्मिन् कियच्चिरं कतिविधं वा वस्तु तद्रूपं चेत्यनुयोगे कार्येन देशेन च तथ प्रतिवचनं / निर्देशादय इति वचनात् प्रवक्तुः पदार्थाः शब्दात्मकास्ते प्रत्येयाः तथा प्रकीर्तितास्तु सर्वे सामर्थ्या ज्ञानात्मका गम्यतेऽन्यथा तदनुपपत्तेः / सत्यज्ञानपूर्वका मिथ्याज्ञानपूर्वका वा ? न सर्वे शब्दा निर्देशादय सत्या नाम सुषुप्तादिवत् , नाप्यसत्या एव ते संवादकत्वात् प्रत्यक्षादिवत्॥ यह पदार्थ कहाँ रहता है ? ऐसा प्रश्न होने पर उसके निवासस्थान का कथन करना अधिकरण कहलाता है। यह पदार्थ कितने काल तक रहेगा ? ऐसा प्रश्न होने पर उसका प्रत्युत्तर देना इतने काल तक रहेगा यह स्थिति है॥४॥ __यह पदार्थ कितने प्रकार का है, ऐसा प्रश्न होने पर उसके भेदों के कथन करने रूप जो विद्वानों के वचन हैं, वह विधान कहलाता है // 5 // अधिगम का साक्षात् कारण ज्ञान है और उससे अव्यवहित पूर्ववर्ती शब्द उसका प्रधान कारण है जो कि अज्ञानस्वरूप है, जड़ है अत: छहों का कथन करते समय वचन प्रधान रूप से कहे गये हैं अर्थात शब्दात्मक और ज्ञानात्मक निर्देश आदिक उपाय अधिगम के कारण हैं, ऐसा जानना चाहिए। क्या वस्तु है ? किसकी वस्तु है ? किन कारणों से निर्मित है ? कहाँ पर स्थित है ? यह वस्तु कितने देर तक (काल तक) रहेगी? और वस्तु कितने प्रकार की है ? इस प्रकार प्रश्न होने पर पूर्ण रूप से वा एकदेश से उसी प्रकार उत्तर रूप प्रतिवचन कहना निर्देश आदिक हैं, ऐसा मूल सूत्र में कहा है। अथवा, प्रकृष्ट वक्ता के निर्देश आदि पदार्थ हैं वे शब्दात्मक हैं, ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि ज्ञान सामर्थ्य से उनका इसी प्रकार कथन किया गया है। तथा अधिगम के उपायभूत निर्देशादिक सभी पदार्थ सामर्थ्य से ज्ञानात्मक जाने जाते हैं। अन्यथा (यदि निर्देश आदिक को ज्ञानात्मक नहीं माना जायेगा तो) कथनोपकथन का व्यवहार नहीं हो सकता। भावार्थ : वचन वक्ता के प्रमाण ज्ञान के कार्य हैं। अर्थात् वचन से ही वक्ता की प्रमाणता सिद्ध होती है तथा वे वचन श्रोता के प्रमाण ज्ञान के कारण हैं क्योंकि वचन सुनकर ही श्रोता को ज्ञान उत्पन्न होता है। कारण का कार्य में और कार्य में कारण का उपचार करने से शब्द भी प्रमाण हो जाता है। इस प्रकार वाच्य वाचक भाव और गम्य गमक भाव की सामर्थ्य से निर्देश आदिक शब्द रूप और ज्ञान स्वरूप हैं। सत्य ज्ञान को कारण मानकर उत्पन्न हुए निर्देश आदिक सत्य कहे जाते हैं। मिथ्या ज्ञानपूर्वक उत्पन्न निर्देश आदिक शब्द मिथ्या कहे जाते हैं। सभी निर्देश आदि शब्द सत्य नहीं होते हैं जैसे गाढ़ निद्रा में सुप्त वा मूर्च्छित आदि जीवों के शब्द सत्य नहीं हैं। तथा ये सभी निर्देशादि शब्द सर्वथा असत्य भी नहीं हैं, क्योंकि ये निर्देश आदि शब्द प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाण के समान संवादक (सफल प्रवृत्ति के जनक) हैं अर्थात् निर्देश आदि शब्द अर्थ और ज्ञानात्मक हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy