________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 285 वस्तुनि प्रतिपित्सिते तदस्त्यवक्तव्यमित्यन्ये, तदप्यसारं / तत्रास्त्यवक्तव्यावक्तव्यादिभंगांतरप्रसंगात् / ततोपि सहार्पिततदन्यधर्मद्वयविशिष्टस्य ततोप्यपरसहार्पितधर्मद्वयविशिष्टस्य वस्तुनो विवक्षाया निराकर्तुमशक्ते: प्रतियोगिधर्मयुगलानामेकत्र वस्तुन्यनंतानां संभवात् तेषां च सहार्पितानां वक्तुमशक्यत्वात् अस्त्यनंतावक्तव्यं वस्तु स्यात् तच्चानिष्टं / येन रूपेण वस्त्विति तेन तत्प्रतियोगिना च सहाक्रांतं यदा प्रतिपत्तुमिष्टं तदास्त्यवक्तव्यमिति केचित्, तेपि यावद्भिः स्वभावैः यावंति वस्तुनोस्तित्वानि तत्प्रतियोगिभिस्तावद्भिरेव धर्मः, यावंति च नास्तित्वानि तद्युगलैः सहार्पितैस्तावंत्यवक्तव्यानि च रूपाणि ततस्तावत्यः सप्तभंग्य इत्याचक्षते चेत् प्रतिष्ठत्येव युक्त्यागमाविरोधात् / एतेन नास्त्यवक्तव्यं चिंतितं प्रत्येयं, स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यं च वस्त्विति प्रमाणसप्तभंगी सकलविरोधवैधुर्यात् सिद्धा / नयसप्तभंगी तु नयसूत्रे प्रपंचतो निरूपयिष्यते / ततः परार्थोधिगमः अस्तित्वधर्म की विशिष्टता से और एक साथ विवक्षित अन्य दो धर्म विशिष्टता से वस्तु को जानने की विवक्षा होने पर “अस्त्यवक्तव्य" इस पंचम भंग की उत्पत्ति होती है, ऐसा कोई कहते हैं परन्तु उनका यह कथन निस्सार है (सार रहित है) क्योंकि अस्ति, नास्ति से भिन्न दो धर्मों की विवक्षा करने पर अस्त्यवक्तव्याव्यक्तव्य आदि भंगान्तर का प्रसंग आता है इसलिए अन्य दो धर्मों के साथ विवक्षित किये गये और उनसे भिन्न दो धर्मों से विशिष्ट वस्तु की तथा उससे भिन्न के साथ अर्पित दो धर्मों से विशिष्ट वस्तु की विवक्षा का निराकरण करने के लिए शक्त (समर्थ) नहीं है। क्योंकि एक वस्तु में नित्य, अनित्य, अस्ति नास्ति आदि अनेक प्रतियोगी (विरुद्ध) अनन्त धर्म युगलों का रहना संभव है परन्तु एक साथ विवक्षित उन धर्मों का कथन करना अशक्य होने के कारण अनन्त अवक्तव्य धर्म का कथन करना इष्ट नहीं है। इसलिए अन्य मतानुसार पाँचवाँ भंग ठीक नहीं है। स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार ही प्रशस्त है। जिस स्वरूप से वस्तु है उस स्वरूप से तो अस्ति है किन्तु उस अस्तिस्वरूप के द्वारा और उसके प्रतियोगी धर्म से आक्रान्त वस्तु को समझाने के लिए जब प्रयत्न किया जाता है तब अस्त्यवक्तव्य रूप भंग कहा जाता है। ऐसा कोई कहते हैं। परन्तु इस प्रकार कहने वाले को भी जितने वस्तु के अस्तित्वरूप भाव धर्म हैं और उन धर्मों के प्रतियोगी जितने स्वभाव हैं वे नास्ति रूप हैं उन अस्ति-नास्ति रूप सर्व युगल धर्मों के साथ एक समय में विवक्षित किये गये उतनी संख्यावाले अनेक अवक्तव्य रूप हो जाते हैं और अवक्तव्य की संख्या वाली सप्त भंगियाँ बन जाती हैं। तब तो युक्ति और आगम से अविरोध होने के कारण उनका कथन प्रतिष्ठित हो ही जाता है, अन्यथा नहीं अर्थात् अस्ति और अवक्तव्य इन दोनों धर्म की एक साथ विवक्षा करने पर पाँचवाँ भंग हो जाता है। - इस उपर्युक्त कथन से नास्त्यवक्तव्य नाम के छठे भंग का विचार करना चाहिए अर्थात् नास्ति और अवक्तव्य धर्म के साथ भंग करने पर नास्त्यवक्तव्य धर्म से कहा जाता है। सातवाँ भंग ‘अस्तिनास्त्यवक्तव्य' है। यह भंग भी वस्तु के अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य धर्मों की एक साथ योजना करने पर उत्पन्न होता है इस प्रकार जीव आदि वस्तु परस्पर की अपेक्षा प्रमाणों के द्वारा सप्तभंगी सम्पूर्ण विरोध रहित सिद्ध है। नय सप्तभंगी नयसूत्र में विस्तार पूर्वक निरूपण करेंगे।