________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 284 वस्तु स्यात् ।सुनिर्णीतासम्भवद्बाधकप्रमाणं वस्तु नान्यदिति चेत् तर्हि यथा प्रत्यक्षतोनुभूयमानं तादृशं वस्तु तद्वलिंगशब्दादिविकल्पोपदर्शितमपि देशकालनरांतराबाधितरूपत्वे सति किं नाभ्युपेयते विशेषाभावात् / ततो जात्यंतरमेव सर्वथैकांतकल्पनातीतं वस्तुत्वमित्युक्तेः स्यादवक्तव्यमिति सूक्तं “क्रमाप्तिाभ्यां तु सदसत्त्वाभ्यां विशेषितं'। जीवादि वस्तु स्यादस्ति च नास्ति चेति वक्तुं शक्यत्वाद्वक्तव्यं स्यादस्तीत्यादिवत् / कथमस्त्यवक्तव्यमिति चेत् प्रतिषेधशब्देन वक्तव्यमेवास्तीत्यादि विधिशब्देनावक्तव्यमित्येके तदयुक्तं, सर्वथाप्यस्तित्वेनावक्तव्यस्य नास्तित्वेन वक्तव्यतानुपपत्तेः विधिपूर्वकत्वात् प्रतिषेधस्य / सर्वथैकांतप्रतिषेधोपि हि विधिपूर्वक एवान्यथा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानाभावप्रसंगात् / दुर्नयोपकल्पितं रूपं सुनयप्रमाणविषयभूतं न भवतीति प्रतिषेधे सर्वथैकांतस्य न कश्चिद्व्याघातः / अस्तित्वविशिष्टतया सहार्पिततदन्यधर्मद्वयविशिष्टतया च ___"जिस पदार्थ के असंभव होने को बाधा देने वाला प्रमाण सुनिर्णीत है अथवा जिस पदार्थ के सद्भाव की सिद्धि में बाधक हो रहे प्रमाण की असंभवता है वह वास्तविक पदार्थ है। अन्य पदार्थ वस्तुभूत नहीं है।" तो जिस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अनुभूत वस्तु यथार्थ है उसी प्रकार अविनाभावी हेतु, संकेत से ग्रहण किया गया शब्द चेष्टा आदि से उत्पन्न विकल्पज्ञान के द्वारा प्रदर्शित किये गये पदार्थ भी दूसरे देश, अन्य काल, और भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से अबाधित स्वरूप होने पर उनको वस्तुभूत क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है क्योंकि प्रत्यक्ष से ज्ञात और विकल्पज्ञान के द्वारा ज्ञात पदार्थ के विषय में कोई अन्तर (विशेषता) नहीं है अतः सभी प्रकार की एकान्तों की कल्पनाओं से अतीत वस्तु वास्तविक है। इसलिए कथञ्चित् जीव आदि वस्तु अवक्तव्य है। ऐसा कहना समीचीन है। इस प्रकार तीसरा अवक्तव्य भंग सिद्ध है। "क्रम से विवक्षित सत्त्व और असत्त्व से विशिष्ट (व्याप्त) जीवादि वस्तु कथञ्चित् अस्ति और नास्ति स्वरूप है" ऐसा कथन करना शक्य होने से कथंचित् चतुर्थ (अस्ति नास्ति) भंग के द्वारा वस्तु वक्तव्य है। जैसे स्यादस्ति इत्यादि वाक्यों के द्वारा कहने योग्य होने के कारण स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्य इन भंगों के द्वारा वस्तु कथन करने योग्य है। शंका : ‘अस्त्यवक्तव्य' यह पाँचवाँ भंग कैसे सिद्ध होता है ? कोई प्रतिवादी समाधान करते हैं कि निषेध वाचक नास्ति शब्द के द्वारा जीव आदि वक्तव्य ही हैं। किन्तु अस्ति इत्यादि विधि (सत्ता) वाचक शब्द के द्वारा जीवादि अवक्तव्य हैं अतः अस्ति होकर अवक्तव्य हो गया। समाधान - जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है-क्योंकि सर्वथा भी अस्तित्व धर्म के द्वारा नहीं कहे जाने योग्य जीव आदि का अस्तित्व के द्वारा अवक्तव्य और नास्तित्व के द्वारा नय वक्तव्य की उत्पत्ति (सिद्धि) नहीं हो सकती। प्रतिषेध भी विधि पूर्वक हो जाता है। सर्वथा एकान्त का निषेध करना विधिपूर्वक ही होता है। अन्यथा मिथ्यात्व गुणस्थान के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान सम्यग्दर्शन के अभाव रूप ही है। दुर्नयों के द्वारा कल्पित वस्तु स्वरूप, सुनय और प्रमाण का विषय नहीं होता है। इसलिए सर्वथा एकान्तों का निषेध करने में कोई व्याघात दोष नहीं है क्योंकि निषेध भी विधिपूर्वक होता है।