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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 283 समाधिः, साधारणतानिर्देश्यतयोरपि तत्स्वरूपत्वात् / तर्हि निर्देश्यं साधारणमिति स्वलक्षणमेव नामांतरेणोक्तं स्यादिति चेत् तवाप्यसाधारणमनिर्देश्यमिति किं न नामांतरेण तदेवाभिमतं। तथेष्टौ वस्तु न साधारणं नाप्यसाधारणं न निर्देश्यं नाप्यनिर्देश्यमन्यथा चेत्यायातं / ततोऽकिंचिद्रूपं जात्यंतरं भवन्न दूरीकर्तव्यं गत्यंतराभावात् / तदकिंचिद्रूपं चेत् कथं वस्तु व्याघातं सकृत्कल्पितरूपाभावादकिंचिद्रूपं नानुभूयमानरूपाभावादिति चेत् तवाप्यसाधारणं / तत्किमिदानीमनुभूयमानरूपं वस्तु स्थितं तथा वा ? स्थाने तैमिरिकानुभूयमानमपींदुद्वयं स्वलक्षण से भिन्न होकर यह निर्देश्यता और साधारणता क्या प्रतिभास रही है ? ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि “वस्तु की अनिर्देश्यता और असाधारणता क्या है ?" दोनों प्रश्न समान हैं। ___यदि बौद्ध कहे कि असाधारणता और अनिर्देश्यता तो स्वलक्षण का स्वरूप ही है तो इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि निर्देश्यता और साधारणता भी वस्तु के स्वलक्षण रूप ही है अतः समाधान प्रश्न के समान है। स्वभाव, स्वभाववान से पृथक् नहीं होते। - यदि बौद्ध कहे कि निर्देश्य और साधारण ये दोनों स्वलक्षण के नामान्तर ही कहे गये हैं-ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार कहने वाले बौद्ध के प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि तो फिर अनिर्देश्य और असाधारण भी स्वलक्षण के पर्यायवाची शब्द हैं, इससे भिन्न कुछ नहीं है? ऐसा क्यों नहीं कहा जायेगा। उनको नामान्तर मानना चाहिए। . इससे यह सिद्ध होता है कि वस्तु साधारण भी नहीं है, असाधारण भी नहीं है, निर्देश्य भी नहीं है, और अनिर्देश्य भी नहीं है परन्तु वस्तु अन्य प्रकार ही है। इसलिए अकिंचित् से जात्यन्तर रूप को धारण करने वाली वस्तु को दूर नहीं कर सकते। (अर्थात् वस्तु निर्देश्य भी है अनिर्देश्य भी है, साधारण भी है असाधारण भी है ऐसा स्याद्वाद रूप स्वीकार करना चाहिए) वस्तु के स्वरूप का कथन करने के लिए दूसरा उपाय नहीं है अर्थात् स्याद्वाद के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं होती है और स्याद्वाद के द्वारा वस्तु की सिद्धि करने के लिए शब्दों की आवश्यकता है। शब्दजन्य ज्ञान के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। - वस्तु का स्वरूप कुछ भी नहीं है, ऐसा कहने पर वस्तु कैसे बनेगी ? अर्थात् कुछ भी स्वरूप नहीं है और वह वस्तु है, ऐसा एक बार कहने में व्याघात दोष है अर्थात् जो कुछ भी नहीं है, वह वस्तु नहीं हो सकती है और जो वस्तु है, वह “कुछ नहीं" ऐसा नहीं हो सकता है। बौद्ध कहते हैं कि एक बार ही कल्पना कर लिये गये अनेक स्वरूप तो वस्तु में नहीं हैं अत: वस्तु अकिंचित् स्वरूप है अर्थात् व्यावहारिक शब्दों के द्वारा कथन नहीं हो सकता अत: वस्तु अकिंचित् है। परन्तु अनुभूयमान रूप का अभाव होने से वस्तु अकिंचित् रूप नहीं है अर्थात् वस्तु के प्रत्यक्ष करने योग्य स्वरूप तो वास्तविक हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि तुम्हारे सिद्धान्त में वह वस्तु का साधारण स्वरूप क्या इस समय अनुभूयमान है (अनुभव में आ रहा है ) अनुभव में स्थित है। यदि असाधारण रूप से वस्तु अनुभव में आ रही है ऐसा मानोगे तो तैमिरिक रोगी के द्वारा अनुभूतमान दो चन्द्रमा भी वस्तुभूत हो जायेंगे अर्थात् मन कल्पित असाधारण वस्तु का अनुभव करना यदि सत्य है तो पीलिया रोग से जर्जरित पुरुष के नेत्र रोग के कारण दो चन्द्रमा का अनुभव भी सत्य होना चाहिए।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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