________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 282 यदि वस्तुसंस्पर्शी शब्दस्तं स्पृशतु करणवत् / न हि करणजनितं ज्ञानं वस्तु संस्पृशति न पुन: करणमिति युक्तं / करणमुपचारात्तत्स्पृशतीति चेत् तथा शब्दोपीति समानं / शब्दजनितो व्यवसायोपि न वस्तु संस्पृशतीति चेत् कथं ततो वस्तुरूपं प्रत्येयं ? भ्रांतिमात्रादिति चेत् , न हि परमार्थतस्तदनिर्देश्यमवधारणं वा सिद्ध्येता' दर्शनात्तथा तत्सिद्धिरिति चेत् न, तस्यापि तत्रासामर्थ्यात् / न हि प्रत्यक्षं भावस्यानिर्देश्यतां प्रत्येति निर्देशयोग्यसा साधारणासाधारणरूपस्य वस्तुनस्तेन साक्षात्करणात् / स्वलक्षणव्यतिरिक्ता केयं निर्देश्यता साधारणता का प्रतिभातीति चेत् तस्यासाधारणतानिर्देश्यता वा केति समः पर्यनुयोगः / स्वलक्षणत्वमेव सेति चेत् समा इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि यदि वस्तु अवाच्य हैं तब अनिर्देश्य, क्षणिक, स्वलक्षण आदि स्वरूप वस्तु को कैसे जाना जा सकता है अर्थात् अवाच्य वस्तु का स्वलक्षण द्वारा कथन कैसे हो सकता है। यदि क्षणिकत्व, अवक्तव्यत्व आदि के द्वारा वस्तु का निर्णय हो जाने से वस्तु की प्रतिपत्ति (ज्ञान) हो जाती है ऐसा कहते हो तो, यदि वह निर्णय वास्तविक अर्थ का स्पर्श कर रहा है (वास्तविक वस्तु का कथन कर रहा है) तब तो इन्द्रियों के समान शब्द भी वास्तविक अर्थ का स्पर्श करता है ऐसा मानना चाहिए अर्थात् जैसे इन्द्रियाँ यथार्थ वस्तु को जानती हैं, वैसे शब्दजन्य आगम ज्ञान भी वस्तु को जानता है। इन्द्रियजन्य ज्ञान वस्तु का स्पर्श करता है (वस्तु को विषय करता है) इन्द्रियाँ वस्तु को विषय नहीं करती हैं अत: इन्द्रियों के समान जड़ शब्द पदार्थ का स्पर्श नहीं करता है। ऐसा कथन भी युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा विषय होने पर ही इन्द्रियजन्य ज्ञान उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं। यदि बौद्ध कहे कि कार्य का कारण में उपचार करके इन्द्रियाँ वस्तु का स्पर्श करती हैं, ऐसा कहा जाता है ; तब तो शब्द भी उपचार से वस्तु को विषय करते हैं ऐसा कह सकते हैं, क्योंकि 'इन्द्रिय और शब्द' दोनों में आक्षेप और समाधान तुल्य ही हैं। ___ यदि शब्दजनित निश्चयात्मक ज्ञान वस्तु का स्पर्श नहीं करता है तो वस्तु का स्वरूप कैसे समझा जा सकेगा? यदि कहो कि केवल भ्रान्ति से वस्तु को समझा जाता है, वास्तव में नहीं तब तो परमार्थरूप स्वलक्षण अवक्तव्य है, अनिर्देश्य है, असाधारण है; इसकी सिद्धि नहीं हो सकती। "निर्विकल्प दर्शन से अनिर्देश्य और असाधारण स्वलक्षण की सिद्धि होती है" ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उस निर्विकल्प दर्शन में उस अनिर्देश्य, असाधारण के कथन करने का सामर्थ्य नहीं है। अर्थात् निर्विकल्प दर्शन (प्रत्यक्षज्ञान) यह विचार नहीं कर सकता है कि यह वस्तु अवाच्य है, विशेष रूप है, इत्यादि क्योंकि विचार करना श्रुतज्ञान का विषय है अतः प्रत्यक्षज्ञान पदार्थों की अनिर्देश्यता को नहीं जानता है परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा निर्देश करने योग्य, साधारण और असाधारण रूप वस्तु का साक्षात्कार होता है अर्थात् मतिज्ञान पदार्थों का साक्षात्कार करता है और श्रुतज्ञान शब्द के द्वारा कथन करता है।