________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 281 व्याघाते सतीष्टविपरीतनिर्गुणत्वापत्तेः। विवक्षितोभयगुणेनाभिधानात् अवक्तव्योर्थ इत्ययमपि सकलादेशः परस्परावधारितविविक्तरूपैकात्मकाभ्यां गुणाभ्यां गुणिविशेषणत्वेन युगपदुपक्षिप्ताभ्यामविवक्षितांशभेदस्य वस्तुनः समस्तैकेन गुणरूपेणाभेदवृत्त्याभेदोपचारेण वाभिधातुं प्रक्रांतत्वात् / स चावक्तव्यशब्देनान्यैश्च षड्भिर्वचनैः पर्यायांतरविवक्षया च वक्तव्यत्वात्स्यादवक्तव्य इति निर्णीतमेतत् / एतेन सर्वथा वस्तु सत् स्वलक्षणमवक्तव्यमेवेतिमतमपास्तं स्वलक्षणमनिर्देश्यमित्यादिवचनव्यवहारस्य तत्राभावप्रसंगात् / यदि पुनरस्वलक्षणं शब्देनोच्यते निर्देश्यव्यावृत्त्या च निर्देश्यशब्देन विकल्पप्रतिभासिन एवाभिधानात् न तु वस्तु रूपं परामृश्यत इति मतं, तदा कथं वस्तु तथा प्रतिपन्नं स्यात् ? तथा व्यवसायादिति चेत् , सोपि व्यवसायो इस प्रकार तो मुख्यवृत्ति से आरोपित समान बल वाले सत्त्व और असत्त्व धर्मों का परस्पर कथन करने का व्याघात हो जाने के कारण जब दोनों का नाश हो जायेगा तो सिद्धान्त से विपरीत गुणरहितता की आपत्ति आयेगी और गुणों का अभाव किसी को भी इष्ट नहीं है। विवक्षित अस्ति, नास्ति इन उभय गुणों के द्वारा कथन करने से वस्तुभूत अर्थ अवक्तव्य है। इस प्रकार यह भी कथन वस्तु के सकल अंशों को कहने वाला सकलादेश वाक्य है क्योंकि परस्पर अवधारित (निश्चित) भिन्न-भिन्न एकरूप वाले दो गुणों के द्वारा गुणीरूप से विशिष्ट वस्तु का एक समय युगपत् आरोपित दो गुणों के द्वारा अविवक्षित अंश भेद वाली वस्तु को सम्पूर्ण या एक गुण के द्वारा अभेदवृत्ति और अभेद उपचार से कथन करने के लिए प्रकरण प्राप्त है। अर्थात् अभेद वृत्ति और अभेद उपचार से गुण गुणी को एक मान लिया जाता है। विवक्षा को प्राप्त या जिनकी विवक्षा नहीं, ऐसे सर्व गुणों का समुदाय ही वस्तु है। गुणों से भिन्न वस्तु नहीं है इसलिए अवक्तव्य शब्द के द्वारा पूर्ण वस्तु का कथन नहीं हो सकता। स्याद्वाद मतानुसार अभेद वृत्ति या अभेद उपचार से वस्तु के सकलादेश का कथन हो सकता है अतः अवक्तव्य शब्द के द्वारा तथा अन्य अस्ति आदि छह भंग रूप शब्दों के द्वारा पर्यायान्तर की विवक्षा से कथन किया जाता है अत: पदार्थ कथञ्चित् अवक्तव्य है। अर्थात् वस्तु अवक्तव्य होते हुए भी सात भंगों के वाचक शब्दों के द्वारा वक्तव्य है। इस सप्त भंग कथन के द्वारा “परमार्थभूत स्वलक्षण वस्तुसत् सर्वथा अवक्तव्य है" इस प्रकार कहने वाले बौद्धों के कथन का भी खण्डन कर दिया है क्योंकि स्वलक्षणभूत वस्तु को सर्वथा अवक्तव्य मानने पर “स्वलक्षण कथन करने योग्य नहीं है, स्वलक्षण क्षणिक है, विशेषरूप है, निरंश है" इत्यादि वचनों के व्यवहार के अभाव का प्रसंग आयेगा और वस्तु का स्वरूप समझना भी कठिन होगा। यदि बौद्धों का मन्तव्य हो कि, “स्वलक्षण शब्द से वस्तुभूत स्वलक्षण नहीं कहा जाता है-अपितु अन्यापोह कहा जाता है जो अवस्तु होकर विकल्प ज्ञान में प्रतिभासित है अत: स्वलक्षण शब्द से अस्वलक्षण की व्यावृत्ति और अनिर्देश्य शब्द से निर्देश्य की व्यावृत्ति होती है जो वास्तविक नहीं है अपितु विकल्प में प्रतिभासित है। वास्तविक स्वरूप के विशिष्ट ज्ञान का शब्द से परामर्श नहीं होता है।