________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 280 तस्य वाचकं तथान्यदपि किं न भवेत् ? तस्य क्रमेणैव तत्प्रत्यायकत्वादिति चेत् , तत एवावक्तव्यमितिपदस्य तद्वाचकत्वं माभूत् / ततोपि हि सकृत्प्रधानभूतसदसत्त्वादिधर्माक्रांतं वस्तु क्रमेणैव प्रतीयते सांकेतिकपदांतरादिव विशेषाभावात् वक्तव्यत्वाभावस्यैवैकस्य धर्मस्यावक्तव्यपदेन प्रत्यायनाच्च न तथाविधवस्तुप्रत्यायनं सुघर्ट येनावक्तव्यपदेन तद्व्यक्तमिति युज्यते / कथमिदानीं “अवाच्यतैकांतेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते' इत्युक्तं घटते ? सकृद्धर्मद्वयाक्रान्तत्वेनेव सत्त्वाद्येकैकधर्मसमाक्रांतत्वेनाप्यवाच्यत्वे वस्तुनो वाच्यत्वाभावधर्मेणाक्रांतस्यावाच्यपदेनाभिधानं न युज्यते इति व्याख्यानात् / येन रूपेणावाच्यं तेनैव वाच्यमवाच्यशब्देन वस्त्विति व्याचक्षाणो वस्तु येनात्मना सत् तेनैवासदिति विरोधान्नोभयेकात्म्यं वस्तुन इति कथं व्यवस्थापयेत्? सर्वत्र स्याद्वादन्यायविद्वेषितापत्तेः / ततो वस्तुनि मुख्यवृत्त्या समानबलयोः सदसत्त्वयोः परस्पराभिधानव्याघातेन क्योंकि उस अवक्तव्य शब्द के द्वारा भी युगपत् (एक साथ) प्रधानभूत सत्त्व और असत्त्वादि धर्मों से व्याप्त वस्तु क्रम से ही प्रतीत होती है और क्रम से जानी जा सकती है जैसे दो धर्मों को कहने के लिए सांकेतिक अन्य पदों के द्वारा क्रम से ही वस्तु की प्रतीति होती है क्योंकि युगपत् दो धर्मों का कथन करने में असमर्थ सांकेतिक पदान्तरों में और अवक्तव्य पद में विशेषता का अभाव है। अथवा अवक्तव्य पद से एक वक्तव्य के अभाव का ही ज्ञान होता है। युगपत् दो धर्मों से आक्रान्त वस्तु का अवक्तव्य पद से निरूपण नहीं हो सकता इसलिए अनन्त धर्मात्मक वस्तु का अवक्तव्य पद के द्वारा कथन करना सुघट नहीं है अतः अवक्तव्य पद से वस्तु व्यक्त कैसे हो सकती है। (व्यक्त होती है ऐसा कहना कैसे हो सकता है ?) शंका : यदि अवक्तव्य शब्द के द्वारा दो धर्मों से व्याप्त वस्तु का कथन नहीं होता है तो श्री समन्तभद्र द्वारा कथित “अवाच्यता एकान्त से अवाच्य ही है यह कहना युक्तिसंगत नहीं है", यह इस समय कैसे घटित होगा? उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि इस कारिका का यह अर्थ है कि एक समय में दो धर्मों से आक्रान्त वस्तु जैसे अवाच्य है उसी प्रकार सत्त्व, असत्त्व एक-एक धर्म से आरूढ़ वस्तु को यदि अवाच्य माना जायेगा तो वाच्यताभाव नामक एक धर्म से युक्त वस्तु का अवाच्य पद से कथन करना युक्त (ठीक) नहीं हो सकेगा। ___अर्थात् परिपूर्ण वस्तु को अवक्तव्य भंग से अवाच्य नहीं कहा है किन्तु वस्तु के वाच्यत्वाभाव नाम के धर्म का कथन करने के लिए अवक्तव्य शब्द है। यदि सर्वथा वस्तु का अवाच्यपना स्वीकार किया जाता है तो उस एक वाच्यत्वाभाव धर्म का भी अवक्तव्य शब्द के द्वारा प्रतिपादन नहीं होगा। "जिस स्वरूप से वस्तु अवाच्य है, उसी स्वरूप से अवाच्य शब्द के द्वारा वस्तु वाच्य है" ऐसा कहने पर तो “जिस स्वरूप से वस्तु सत् है उसी स्वरूप से असत् है" ऐसा भी कहा जा सकता है। तो फिर विरोध होने से उभय एकान्त वस्तु नहीं है" ऐसा व्यवस्थित कैसे हो सकता है ? अर्थात् सर्वथा वस्तु न सत् है और न असत् है यह व्यवस्था कैसे हो सकती है ? इत्यादि; अपनी इच्छानुसार कारिका की व्याख्या करना स्याद्वाद न्याय से द्वेष रखने का ही प्रसंग आता है। स्याद्वाद न्याय में कोई दोष नहीं है, क्योंकि