________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 279 क्रमेणार्थद्वयप्रत्यायने सामोपपत्तेः / तौ सदिति शतृशानयोः संकेतितसच्छब्दवत् द्वंद्ववृत्तिपदं तयोः सकृ दभिधायक मित्यने नापास्तं, सदसत्त्वे इत्यादिपदस्य क्र मेण धर्मद्वयप्रत्यायनसमर्थत्वात् / कर्मधारयादिवृत्तिपदमपि न तयोरभिधायकं, तत एव प्रधानभावेन धर्मद्वयप्रत्यायने तस्यासामर्थ्याच्च / वाक्यं तयोरभिधायक मने नैवापास्तमिति सकलवाचकरहितत्वादवक्तव्यं वस्तु युगपत्सदसत्त्वाभ्यां प्रधानभावार्पिताभ्यामाक्रांतं व्यवतिष्ठते तच्च न सर्वथैवावक्तव्यमेव शब्देनास्य वक्तव्यत्वादित्येके / ते च पृष्टव्याः। किमभिधेयमवक्तव्यशब्दस्येति ? युगपत्प्रधानभूतसदसत्त्वादिधर्मद्वयाक्रान्तं वस्त्विति चेत् , कथं तस्य सकलवाचकरहितत्वं ? अवक्तव्यपदस्यैव तद्वाचकस्य सद्भावात् / यथा वक्तव्यमिति पदं सांकेतिकं इस प्रकार ‘तौ सत्' इस व्याकरण सूत्र के अनुसार 'शतृ और शानच्' इन दो प्रत्ययों में संकेत किये गये 'सत्' शब्द के समान द्वन्द्व समास वृत्ति से निष्पन्न पद ‘सत्त्वासत्त्व' का एक शब्द के द्वारा एक साथ कथन कर देगा इसका भी खण्डन कर दिया गया है क्योंकि द्वन्द्व समास के द्वारा निष्पन्न सत्त्वासत्त्व (अस्तिनास्ति) इत्यादि पद के भी क्रम से ही दो धर्मों को समझाने का, कथन करने का सामर्थ्य है। एक साथ दो धर्मों के कथन करने का सामर्थ्य नहीं है। : इसी प्रकार कर्मधारय, बहुब्रीहि आदि समास से निष्पन्न पद भी दो धर्मों का एक साथ कथन करने वाले नहीं हैं। क्योंकि प्रधान रूप से दो धर्मों का एक साथ कथन करने के सामर्थ्य का उस पद में अभाव है अर्थात् कोई भी एक पद युगपत् दोनों धर्मों का वाचक नहीं है अतः उन दो धर्मों का एक साथ वाचक कोई वाक्य संभव है, इसका भी इस कथन से खण्डन कर दिया है। युगपत् (एक साथ) प्रधान रूप से अर्पित (विवक्षित) सत्त्व और असत्त्व इन दो धर्मों से आक्रान्त (व्याप्त) अवक्तव्य वस्तु सम्पूर्ण वाचक शब्दों से रहित होने से सर्वथा अवक्तव्य ही व्यवस्थित है, ऐसा नहीं है क्योंकि अवक्तव्य शब्द के द्वारा अवक्तव्य वस्तु का कथन किया जा रहा है अर्थात् वस्तु ‘अवक्तव्य' है यह कहा जाता है। ऐसा कोई प्रतिवादी कह रहा है। जैनाचार्य उससे पूछते हैं कि अवक्तव्य शब्द का अभिधेय (वाच्यार्थ) क्या है ? यदि कहो कि युगपत् प्रधानभूत सत्त्व, असत्त्व, नित्य, अनित्य आदि दो धर्मों से व्याप्त वस्तु अवक्तव्य शब्द का वाच्यार्थ है तब तो उस वस्तु के सकल वाचक शब्दों से रहितपना कैसे सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि उस वस्तु के वाचक अवक्तव्य शब्द का सद्भाव पाया जाता है। जिस प्रकार एक काल में दो विरुद्ध धर्मों से व्याप्त वस्तु का वाचक अवक्तव्य पद सांकेतिक है अर्थात् अवक्तव्य पद दो धर्मों का एक साथ संकेत कर रहा है ; उसी प्रकार अन्य शब्द भी उसके वाचक क्यों नहीं होंगे। यदि कहो कि अन्य पद युगपत् दो धर्मों से आक्रान्त वस्तु का क्रम से ज्ञान करा सकते हैं- युगपत् नहीं, तब तो अवक्तव्य पद भी वस्तु का वाचक नहीं हो सकता।