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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 278 शुक्लकृष्णादिवत् तत्संसर्गे गुणभेदविरोधात् / न च शब्दाभेदो युगपद्भावो गुणानां भिन्नशब्दाभिधेयत्वान्नीलादिवत्। ततो युगपद्भावात् सदसत्त्वादिगुणानां न तद्विवक्षा युक्ता यस्यामवक्तव्यं वस्तु स्यात् इत्येकांतवादिनामुपद्रवः, स्याद्वादिनां कालादिभिरभेदवृत्तेः परस्परविरुद्धेष्वपि गुणेषु सत्त्वादिष्वेकत्र वस्तुनि प्रसिद्धेः प्रमाणे तथैव प्रतिभासनात् स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षया विरोधाभावात् / केवलं युगपद्वाचकाभावात्सदसत्त्वयोरेकत्रावाच्यता सत्तामात्रनिबंधनत्वाभावाद्वाच्यतायाः / विद्यमानमपि हि सदसत्त्वगुणद्वयं युगपदेकत्र सदित्यभिधानेन वक्तुमशक्यं तस्यासत्त्वप्रतिपादनासमर्थत्वात् तथैवासदित्यभिधानेन तद्वक्तुमशक्यं तस्य सत्त्वप्रत्यायने सामर्थ्याभावात् / सांकेतिकमेकपदं तदभिधातुं समर्थमित्यपि न सत्यं, तस्यापि ___ शब्दों का अभेद होना भी गुणों का युगपत् भाव नहीं है, क्योंकि नील, पीत आदि के समान अस्ति नास्ति आदि गुण भी भिन्न-भिन्न शब्दों के द्वारा कहे जाते हैं। इसलिये सत्त्व असत्त्व आदि गुणों के युगपत् भाव से उनकी विवक्षा करना युक्तिसंगत नहीं है। जिस विवक्षा के होने पर वस्तु अवक्तव्य सिद्ध हो सकती हो। अर्थात् वस्तु अवक्तव्य सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि गुणों की युगपत् कहने की विवक्षा होना विरोध होने के कारण सिद्ध नहीं है। . इस प्रकार की शंका के प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि-इस प्रकार एकान्तवादियों के द्वारा दिया गया उपद्रव वा उलाहना स्याद्वादियों के प्रति लागू नहीं हो सकता क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में एक वस्तु में परस्पर विरुद्ध सत्त्व, असत्त्व आदि गुणों में काल आदि के द्वारा अभेद वृत्ति का होना प्रसिद्ध है क्योंकि प्रमाण ज्ञान में इस प्रकार का प्रतिभास हो रहा है तथा स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्व का और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तित्व का एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है। (विरोध का अभाव है) केवल एक साथ (युगपत्) सत्त्व और असत्त्व इन दोनों गुणों के एक वस्तु में वाचकता (कथन करने) का अभाव होने से अवाच्य (अवक्तव्य) कह दिया जाता है। वा अवक्तव्य धर्म माना जाता है। वाच्यता केवल धर्मी की सत्ता के आधीन ही नहीं है अर्थात् जगत् के सारे पदार्थ वचन के द्वारा कथन करने योग्य ही हैं-ऐसा कोई नियम नहीं है। कुछ पदार्थ ऐसे भी हैं जो वचनों के द्वारा कहे नहीं जा सकते अतः वस्तु में सत्त्व और असत्त्व दोनों गुण एक साथ विद्यमान हैं- तथापि एक वस्तु में एक समय में युगपत् सत् शब्द के द्वारा दोनों धर्मों का कथन करना अशक्य है तथा असत्-नास्ति शब्द के द्वारा भी सत्त्व और असत्त्व ये दोनों धर्म एक साथ नहीं कहे जा सकते क्योंकि असत्त्व धर्मशब्द सत्त्व धर्म को समझाने में समर्थ नहीं है और सत्त्व धर्मशब्द असत्त्व का कथन करने में समर्थ नहीं है। __सांकेतिक (संकेत करने वाला) एक पद दोनों परस्पर विरोधी धर्मों को एक साथ कहने में समर्थ है-ऐसा भी कहना सत्य (उचित) नहीं है क्योंकि सांकेतिक पदके भी क्रम से ही दोनों अर्थों को समझाने का सामर्थ्य है अर्थात् शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य विषय में क्रम से ही प्रवृत्ति होती है। जैसे आकाश, वाणी, इन्द्रियाँ आदि अनेक अर्थों का वाचक 'गो' शब्द है- परन्तु वह एक साथ अनेक अर्थों का संकेत करके भी एक साथ सर्व अर्थों का कथन नहीं कर सकता, अपितु क्रम से ही ज्ञान करा सकता है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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