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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 277 चिंत्यं। कालाधंभेदवृत्तिरिति चेत् न, परस्परविरुद्धानां गुणानामेकत्र वस्तुन्येकस्मिन् काले वृत्तेरदर्शनात् सुखदुःखादिवत् / नाप्यात्मरूपेणाभेदवृत्तिस्तेषां युगपद्भावस्तदात्मरूपस्य परस्परविभक्तत्वात्तद्वत् / न चैकद्रव्याधारतया वृत्तियुगपद्भावस्तेषां भिन्नाधारतया प्रतीतेः शीतोष्णस्पर्शवत्। संबंधाभेदो युगपद्भाव इत्यप्ययुक्तं, तेषां संबंधस्य भिन्नत्वाद्देवदत्तस्य छत्रदंडादिसंबंधवत् समवायस्याप्येकत्वाघटनाद्भिन्नाभिधानप्रत्ययहेतुत्वात् संयोगवत् / न चोपकाराभेदस्तेषां युगपद्भावः प्रतिगुणमुपकारस्य भिन्नत्वान्नीलपीताद्यनुरंजनवत् पटादौ। न चैकदेशो गुणिनः सम्भवति निरंशत्वोपगमात्। यतो गुणिदेशाभेदो युगपद्भावो गुणानामुपपद्येत / न तेषामन्योन्यं संसर्गो युगपद्भावस्तस्यासंभवादासंसृष्टरूपत्वाद्गुणानां “काल, आत्मस्वरूप आदि से अभेद वृत्ति हो जाना गुणों का युगपत् भाव है" ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि परस्पर विरुद्ध अस्ति, नास्ति, आदि गुणों का एक वस्तु में एक समय रहना दृष्टिगोचर नहीं होता है-जैसे सुख दुःखं दोनों एक साथ नहीं रहते हैं। आत्मस्वरूप से अभेद वृत्ति होना भी उन गुणों का युगपद् भाव नहीं है क्योंकि उन विरुद्ध गुणों का आत्मस्वरूप भी परस्पर में पृथक्-पृथक् है अर्थात् जैसे सुख का आत्मस्वरूप निराकुलता है-और दुःख का आत्मस्वरूप व्याकुलता है। एक द्रव्यरूप आधार के आधेय होकर रहना भी युगपद् भाव नहीं है क्योंकि शीत और उष्ण स्पर्श के समान भिन्न-भिन्न आधार से उन धर्मों की प्रतीति होती है। “सम्बन्ध का अभेद होना गुणों का युगपद् भाव है," यह कहना भी युक्ति रहित है। क्योंकि उन गुणों का स्वकीय सम्बन्ध भिन्न-भिन्न है। जैसे देवदत्त का छतरी, दण्ड, अंगूठी आदि के साथ सम्बन्ध पृथक्-पृथक् है। .. समवाय सम्बन्ध भी एक होकर घटित नहीं होता है क्योंकि संयोग सम्बन्ध के समान समवाय सम्बन्ध भी भिन्न शब्द, भिन्न ज्ञान और भिन्न-भिन्न कार्यों का हेतु होने के कारण अनेक हैं अर्थात् जैसे संयोग सम्बन्ध अनेक हैं-वैसे समवाय सम्बन्ध भी अनेक हैं। जैसे चौकी, कपड़ा आदि का संयोग भिन्न-भिन्न हैवैसे आत्मा के ज्ञानादि गुणों का तथा पुद्गल के रूपादि गुणों का समवाय सम्बन्ध भी भिन्न-भिन्न ही है। . उपकार द्वारा अभेद होना भी उन गुणों का युगपद् भाव नहीं है क्योंकि प्रत्येक गुण का उपकार भी भिन्न-भिन्न है। जैसे वस्त्र आदि में नील, पीत आदि रंग से अनुरंजित रंग का उपकार भिन्न-भिन्न है अर्थात् नीले रंग से नीलत्व और पीले रंग से पीतत्व आदि उपकार भिन्न-भिन्न होता है तथा गुणी निरंश है-अतः गुणी का एकदेश होना संभव नहीं है। इसलिए गुणी देश का अभेद होना भी गुणों का युगपद् भाव नहीं है। - गुणों का परस्पर में संसर्ग होना भी युगपत् भाव नहीं है। क्योंकि गुणों में संसर्ग की संभवता नहीं है। जैसे शुक्ल, कृष्ण आदि के समान गुण परस्पर में एक दूसरे से मिले हुए नहीं हैं। यदि उन गुणों का परस्पर में सम्बन्ध होता तो गुणों में भेद होने का विरोध होता है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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