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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 276 तुल्यनामत्वात्तदन्यतमस्यापह्नवे सकलव्यवहारविलोपात्तेषां भ्रांतत्वैकांते कस्यचिदभ्रांतस्य तत्त्वस्याप्रतिष्ठितेरवश्यं परमार्थसत्त्वमुररीकर्तव्यं / तथा चार्थाभिधानप्रत्ययात्मना स्यादस्त्येव जीवादिस्तद्विपरीतात्मना तु स एव नास्तीति भंगद्वयं सर्वप्रवादिनां सिद्धमन्यथा स्वेष्ट तत्त्वाव्यवस्थितेः / तथा चोक्तं / “सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् / असदेव विपर्यासान्न चेन व्यवतिष्ठते // " इति कथमवक्तव्यो जीवादि:? द्वाभ्यां यथोदितप्रकाराभ्यां प्रतियोगिभ्यां धर्माभ्यामवधारणात्मकाभ्यां युगपत्प्रधाननयार्पिताभ्यामेकस्य वस्तुनो भवित्सायां तादृशस्य शब्दस्य प्रकरणादेश्चासंभवादिति केचित् / तत्र कोयं गुणानां युगपद्भावो नामेति भावार्थ : एकान्त और अनेकान्त का अविनाभाव से रहना तो परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा से है परन्तु उनकी निष्पत्ति स्वकारणों से होती है जैसे कर्त्तापन कर्मत्व की अपेक्षा से है, और कर्मत्व कर्ता की अपेक्षा से है अतः कर्त्तापन और कर्मत्व का व्यवहार परस्पर सापेक्ष है, कर्ता और कर्म का स्वस्वरूप परस्पर सापेक्ष नहीं है। ऐसे ही प्रमाण और प्रमेय का स्वरूप तो स्वकीय-स्वकीय कारणों से स्वतः सिद्ध है परन्तु उनका ज्ञाप्य और ज्ञापक व्यवहार परस्पर की अपेक्षा से है इसी प्रकार अस्ति आदि में भी समझना चाहिए। . अथवा अर्थ, शब्द और ज्ञान ये तीन समान नाम वाले हैं अत: उन तीनों में से यदि एक का भी लोप किया जाता है तो सम्पूर्ण लौकिक और शास्त्रीय व्यवहारों का भी लोप हो जाता हैं। यदि इन तीनों को भ्रान्त एकान्त स्वीकार किया जाता है तो किसी भी अभ्रांत वस्तुभूत तत्त्व की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। अत: इन तीनों का वास्तविक रूप से सद्भाव स्वीकार करना चाहिए। उसी प्रकार अर्थ, शब्द और ज्ञान रूप से जीव आदिक कथञ्चित् अस्ति स्वरूप हैं, उस अस्ति से विपरीत (नास्ति रूप) जीवादिक नहीं हैं अर्थात् अज्ञान स्वरूप जीवादि नहीं हैं। इस प्रकार दो भंग सर्व प्रवादियों के सिद्ध हैं। अन्यथा (स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति और पर.चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति के बिना) स्व इष्ट तत्त्व की व्यवस्थिति नहीं हो सकती। सो ही समन्तभद्राचार्य ने देवागम स्तोत्र में कहा है किऐसा कौन वादी और प्रतिवादी है जो सम्पूर्ण द्रव्यों को स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तिस्वरूप और विपरीत (परचतुष्टय) की अपेक्षा नास्ति रूप स्वीकार नहीं करता है क्योंकि अस्ति और नास्ति के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। शंका : जीवादि पदार्थ अवक्तव्य (शब्द के द्वारा नहीं कहने योग्य) कैसे हैं? यदि कहो कि यथोदित प्रकार से पूर्व कथित अवधारणा स्वरूप परस्पर में एक दूसरे के प्रतियोगी तथा एक ही समय में एक साथ प्रधान नय की विवक्षा से कथन करने के लिए अर्पित (विवक्षित) अस्ति नास्ति दोनों धर्मों से युक्त वस्तु को जानने की इच्छा होने पर उस वस्तु के वाचक शब्द की तथा प्रकरण आदि की असम्भवता होने से 'अवक्तव्य' भंग कहा जाता है, ऐसा कोई कहते हैं तब तो वह गुणों का युगपद् भाव (एक साथ कथन करने की इच्छा) क्या है ? इसका स्याद्वादियों को विचार करना चाहिए।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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