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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 275 / येनात्मनानेकांतस्तेनात्मनानेकांत एवेत्येकांतानुषंगोपि नानिष्टः प्रमाणसाधनस्यैवानेकांतत्वसिद्धः नयसाधनस्यैकांतत्वव्यवस्थितेरनेकांतोप्यनेकांत इति प्रतिज्ञानात् // तदुक्तं / “अनेकांतोप्यनेकांत: प्रमाणनयसाधनः / अनेकांतः प्रमाणात्ते तदेकांतार्पितानयात्' इति / न चैवमनवस्थानेकांतस्यैकांतापेक्षित्वेनैवानेकांतत्वव्यवस्थिते: एकांतस्याप्यनेकांतापेक्षितयैवैकांतव्यवस्थानात् / न चेत्थमन्योन्याश्रयणं, स्वरूपेणानेकांतस्य वस्तुनः प्रसिद्धत्वेनैकांतानपेक्षत्वादेकांतस्याप्यनेकांतानपेक्षत्वात्। तत एव तयोरविनाभावस्यान्योन्यापेक्षया प्रसिद्धेः कारकज्ञापकादिविशेषवत् / तदुक्तं / “धर्मधर्म्यविनाभावः सिद्ध्यत्यन्योन्यवीक्षया / न स्वरूपं स्वतो ह्येतत्कारकज्ञापकांगवत् // " इति / किं चार्थाभिधानप्रत्यायनात् जिस रूप से अस्तित्व है उस स्वरूप से अस्तित्व ही है, जिस स्वरूप से नास्तित्व है उस स्वरूप से नास्तित्व ही है इस एकान्तवाद में भी कोई दोष नहीं है क्योंकि सुनय से विवक्षित एकान्त की समीचीन रूप से स्थिति (सिद्धि) है और प्रमाण से विवक्षित अस्तित्व के अनेकान्त की प्रसिद्धि है क्योंकि जिस रूप से अनेकान्त है उस रूप से अनेकान्त ही है, इस प्रकार के एकान्त का प्रसंग भी अनिष्ट नहीं है क्योंकि प्रमाण के द्वारा सिद्ध किये गये विषय में एकान्तपना विवक्षित या व्यवस्थित है। स्याद्वाद सिद्धान्त में अनेकान्त भी अनेकान्त (एकान्त नहीं) है। सो ही समन्तभद्र आचार्य ने कहा है कि जिनदेव ! अनेकान्त भी प्रमाण और नय के द्वारा सिद्ध किया गया तत्त्व अनेक धर्म स्वरूप है। सर्वथा अनेकान्त नहीं है क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त व्यवस्थित है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकान्त व्यवस्थित है। इस अनेकान्त के कथन में अनवस्था दोष नहीं है क्योंकि अनेक धर्मों का समुदाय रूप अनेकान्त एकान्त की अपेक्षा रखता है, और एकान्त अनेकान्त की अपेक्षा से व्यवस्थित है। स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार इस कथन में अन्योऽन्याश्रय दोष भी नहीं है क्योंकि वस्तु में नय दृष्टि से एकान्त और प्रमाण दृष्टि से अनेकान्त अपने स्वभाव से सिद्ध है। ___ 'निजस्वरूप से वस्तु की प्रसिद्धि हो जाने से अनेकान्त के स्वरूप-लाभ में एकान्त की अपेक्षा नहीं है-और न स्वकीय स्वरूप लाभ में एकान्त को अनेकान्त की अपेक्षा है परन्तु व्यवहार में वस्तु के स्वरूप की सिद्धि में एकान्त अनेकान्त के परस्पर में अविनाभाव की प्रसिद्धि है अर्थात् एकान्त (नय) के बिना अनेकान्त (प्रमाण) की सिद्धि नहीं होती और अनेकान्त के बिना एकान्त की सिद्धि नहीं होती क्योंकि इन दोनों में अविनाभाव सिद्ध है। जैसे कारक हेतु, ज्ञापक हेतु आदि विशेष पदार्थ अविनाभाव से युक्त हैं। .. अर्थात् कारक हेतु के बिना ज्ञापक हेतु नहीं रह सकता। कारक हेतु अग्निके बिना ज्ञापक हेतु धूम नहीं रह सकता। सो ही समन्तभद्राचाय ने देवागम स्तोत्र में कहा है-धर्म और धर्मी का अविनाभाव परस्पर की अपेक्षा से सिद्ध होता है परन्तु उनका स्वरूप लाभ परस्पर की अपेक्षा से सिद्ध नहीं होता है। यह स्वयं अपने कारणों से निष्पन्न होता है जैसे कारक हेतुओं के कर्ता, कर्म रूप अंग या ज्ञापक हेतुओं के बोध्य, बोधक अंग परस्पर की अपेक्षा रखने वाले नहीं हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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