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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 274 परस्माद्विशेषणीभावात्सत्त्वस्य प्रथमविशेषणीभावे यद्यसद्रूपत्वाभावस्तदा सैवानवस्था तत्रापि सत्त्वस्यभिन्नस्यान्यविशेषणीभावकल्पनादिति न किंचित्सन्नाम। सत्त्वाद्भिन्नस्य सर्वस्य स्वभावस्यासद्रूपत्वप्रसिद्धेरिति / सर्वथैकान्तवादिनामुपालम्भो न स्याद्वादिनामस्ति शब्दवाच्यादर्थाज्जीवशब्दवाच्यस्यार्थस्य कथंचिद् भिन्नत्वोपगमात् / तथैव वाचिंत्यप्रतीतिसद्भावाच्च पर्यायार्थादेशाद्धि भवनजीवनयोः पर्याययोरस्तिजीवशब्दाभ्यां वाच्ययोः प्रतीतिविशिष्टतया प्रतीतेर्भेदः द्रव्यार्थादेशात्तु तयोरव्यतिरेकादेकतरस्य ग्रहणेनान्यतरस्य ग्रहणादभेदः प्रतिभासत इति न विरोधः संशयो वा तथा निश्चयात् / तत एव न संकरो व्यतिकरो वा, येन रूपेण जीवस्यास्तित्वं तेनैव नास्तित्वानिष्टे: येन च नास्तित्वं तेनैवास्तित्वानुपगमात् तदुभयस्याप्युभयात्मकत्वानास्थानाच्च / न चैवमेकांतोपगमे कश्चिद्दोषः सुनयार्पितस्यैकांतस्य समीचीनतया स्थितत्वात् प्रमाणार्पितस्यास्तित्वाने कांतस्य प्रसिद्धः / दूसरे विशेषणी भाव सम्बन्ध से पूर्व वाले विशेषणी भाव सम्बन्ध में सत्ता का अस्तित्व मान कर असद्रूपता का अभाव हो जाता है, ऐसा वैशेषिक कहेंगे तब तो वही अनवस्था दोष आयेगा क्योंकि दूसरे विशेषणीभाव को सत् बनाने के लिए तीसरे विशेषणी भाव से सत्ता रखनी पड़ेगी। इस प्रकार परम्परा का अभाव न होने से अनवस्था दोष आयेगा। इस प्रकार कोई भी पदार्थ सत् रूप नहीं हो सकता क्योंकि सत्ता से भिन्न सर्व स्वभावों को असद्रूपता की प्रसिद्धि है। इसलिए वैशेषिक के द्वारा कथित उपालंभ एकान्त वादियों के ही हो सकता है स्याद्वादियों के प्रति यह उलाहना नहीं आ सकता क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में . तो अस्ति शब्द के द्वारा वाच्य सत्ता रूप अर्थ से जीव शब्द के द्वारा वाच्य प्राणी अर्थ का कथञ्चित् भेद स्वीकार करते हैं तथा इस प्रकार तर्क के अगोचर भेदाभेदात्मक गुण, गुणी की प्रतीति का सद्भाव पाया जाता पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अस्ति शब्द के द्वारा वाच्य भवन (सत्ता) और जीव शब्द के द्वारा कथित जीवन रूप पर्यायों की विशिष्टता (विलक्षणता) प्रतीति होने के कारण दोनों पर्यायों में प्रतीति भेद है अर्थात् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अस्तित्व और जीवत्व में भेद है परन्तु द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा जीवत्व और अस्तित्व में अव्यतिरेक (अभेद) होने के कारण दोनों में से किसी एक का ग्रहण करने पर दूसरे का ग्रहण हो ही जाता है अत: पर्याय पर्यायी में, गुण गुणी में, अस्तित्व और जीवत्व में अभेद प्रतिभास हो रहा है अतः स्याद्वाद में कोई विरोध नहीं है। तथा इनमें पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुण गुणी में भेदाभेदात्मक प्रतीति का निश्चय होने से संशय भी नहीं है। तथा इस अनेकान्त सिद्धान्त में संकर, व्यतिकर दोष भी नहीं है क्योंकि जिस रूप से जीव का अस्तिपना सिद्ध है, उसी स्वभाव से नास्तिपना इष्ट नहीं है, और जिस स्वभाव से वस्तु का अस्तिपना है उस स्वभाव से नास्तिपना स्वीकार नहीं किया गया है इसलिए संकर दोष नहीं है। तथा भेद और अभेद इन दोनों का उभयात्मकपना भी सर्वथा व्यवस्थित नहीं है। इसलिए परस्पर मे विषय का परिवर्तन न होने के कारण इनमें व्यतिकर दोष भी नहीं है। तथा अनवस्था दोष, वैयाधिकरण दोष, अप्रतिपत्ति दोष, अभावदोष तो स्याद्वाद सिद्धान्त में आ नहीं सकते क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में सर्वथा एकान्तवाद का परित्याग है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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