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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 273 सर्वद्रव्यपर्यायाणां वा जीवत्वमिति संकरव्यतिकरौ स्यातां / यदि पुनरस्तिवाच्यादर्थाद्भिन्न एव जीवशब्दवाच्योर्थः कल्प्यते तदा जीवस्यासद्पत्वप्रसंगोस्तिशब्दवाच्यादर्थाद्भिन्नत्वात् खरशृंगवत् विपर्ययप्रसंगात् / जीववत्सकलार्थेभ्योभिन्नस्यास्तित्वस्याभावप्रसक्तिरनाश्रयत्वात् / तस्य जीवादिषु समवायाददोषोऽयमितिचेन्न, समवायस्य सत्त्वाद्भिन्नस्यासद्पत्वात् स तद्वतो: सम्बन्धत्वविरोधात् / न च समवाये सत्त्वस्य समवायान्तरमुपपन्नं अनवस्थानुषंगात् स्वयं तथानिष्टेश्च। तत्र तस्य विशेषणाभावाददोष इति चेत् सोपि विशेषणाभावः संबंधो यदि सत्त्वाद्भिन्नस्तदा न सद्रूप इति खरविषाणवत्कथं संबंधः ? संकर दोष है)। इस प्रकार सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जीवपना प्राप्त होगा। वह व्यतिकर दोष है। अर्थात् इस प्रकार सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों के युगपत् तदात्मक प्राप्ति स्वरूप संकर दोष और परस्पर में विषय के परिवर्तन रूप व्यतिकर दोष आयेगा। यदि अस्ति के वाच्य अर्थ से जीव शब्द का वाच्य अर्थ भिन्न ही कल्पित किया जायेगा तो अस्ति शब्द के वाच्य अर्थ सद्रूप से भिन्न होने के कारण जीव को गधे के सींग के समान असत् स्वरूप हो जाने का प्रसंग आयेगा अर्थात् जो अस्ति शब्द का विषय नहीं है, अस्ति से सर्वथा भिन्न है, वह असत् स्वरूप है। तथा विपरीतता का प्रसंग आता है अर्थात् सत्ता वाले कितने ही चेतन पदार्थ जीव रूप नहीं हो सकेंगे। ___ जीव के समान सम्पूर्ण पदार्थों से अस्तित्व को यदि भिन्न माना जायेगा तो अस्तित्व के भी अभाव का प्रसंग आयेगा क्योंकि अस्तित्व गुण आश्रय के बिना रह नहीं सकता। ‘अस्तित्व का जीव आदिकों में समवाय सम्बन्ध हो जाने से कोई दोष (अनाश्रय का दोष) नहीं आ सकता अर्थात् समवाय सम्बन्ध से अस्तित्व का पदार्थों में सम्बन्ध हो जाता है अत: पदार्थों से भिन्न भी अस्तित्व स्थित रहता है। 'अनाश्रय दोष नहीं आता है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि सत्ता, जाति से सर्वथा भिन्न होने के कारण समवाय सम्बन्ध भी असद् रूप ही है अर्थात् सत् और असत् का सम्बन्ध नहीं हो सकता तथा सत् और असत् के मध्य में रहने वाले को समवाय सम्बन्धपने का विरोध भी है। समवाय में अस्तित्व का सम्बन्ध दूसरे समवाय से मानना भी युक्त नहीं है क्योंकि उसमें अनवस्था दोष आता है तथा वैशेषिकों ने सत्ता का समवाय में समवायान्तर से सम्बन्ध मानना इष्ट भी नहीं किया है। - "उस समवाय में उस सत्ता का विशेषणता सम्बन्ध है। इसलिए अनवस्था दोष नहीं है" इस प्रकार वैशेषिक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि वह विशेषणता सम्बन्ध भी यदि सत्ता से भिन्न है तब तो सत्स्वरूप नहीं हो सकता। अत: गधे के सींग के समान असत् रूप विशेषणता का समवाय के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है। अर्थात् दो में रहने वाला सम्बन्ध भाव पदार्थ में ही हो सकता है ? अभाव रूप पदार्थ में नहीं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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