________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 271 जीवादित्वेनास्ति तत्प्रतियोगिना तदभावेनाजीवादित्वेन नास्तीति च भंगद्वयं। तेनैव विशिष्टसामान्येनास्ति तदभावसामान्येन वस्त्वंतरात्मना सर्वेण सामान्येन नास्तीति च भंगद्वयं, तेनैव विशिष्टसामान्येनास्ति तद्विशेषणमुख्यत्वेन नास्तीति च भंगद्वयं, सामान्येनाविशेषितेन द्रव्यत्वेनास्ति विशिष्टसामान्येन प्रतियोगिनैवाजीवादित्वेन नास्तीति च भंगद्वयं, द्रव्यसामान्येनाविशेषितेनैवास्ति गुणसामान्येन गुणत्वेन स एव नास्तीति च भंगद्वयं, धर्मसमुदायेन त्रिकालगोचरानंतशक्तिज्ञानादिसमितिरूपेणास्ति तद्व्यतिरेकेणोपलभ्यमानेन तथा शब्द के द्वारा कथित और श्रुति (कान) के द्वारा गृहीत विशिष्ट सामान्य जीव आदि की अपेक्षा जीवादिक पदार्थ अस्ति स्वरूप हैं, और उस जीव के प्रतियोगी विशिष्ट सामान्य के अभाव स्वरूप अजीव आदिक अपेक्षा से जीव नास्ति स्वरूप है, अर्थात् विशेष प्रतिष्ठित मानव के होने पर सामान्य जीव का निषेध कर दिया जाता है, इस प्रकार दो भंग होते हैं। तथा उसी विशिष्ट सामान्य की अपेक्षा जीव है और उस विशिष्ट सामान्य का अभाव रूप है जो दूसरी सर्व वस्तुओं में पाया जाता है, ऐसे अन्य सर्व पदार्थों में रहने वाले सामान्य अस्तित्व की अपेक्षा जीव नास्ति है। इस प्रकार दो भंग होते हैं। विशिष्ट सामान्य की अपेक्षा जीव अस्ति स्वरूप है, और उसके विशेषणों में मुख्य रूप से रहने वाले सामान्य की अपेक्षा जीव नास्ति स्वरूप है, अर्थात् जीवत्व सामान्य की अपेक्षा जीव है क्योंकि अन्य द्रव्यों की अपेक्षा जीव विशिष्ट है और जीवों की अपेक्षा सामान्य है क्योंकि सभी जीव-जीव हैं तथा तिर्यञ्च, देव आदि विशेषण की अपेक्षा सामान्य विशिष्ट विशेषण की मुख्यता से जीव नास्ति है, ये दो भंग होते हैं। तथा विशेषों से रहित द्रव्यत्व सामान्य की अपेक्षा जीव है और विशेषों से सहित प्रतियोगी स्वरूप अजीव आदि की अपेक्षा जीव नहीं है, ये दो भंग नहीं हैं। (नास्ति की अपेक्षा हैं) अर्थात् जिस समय व्यापक द्रव्यत्व की विवक्षा से जीव अस्ति है और व्याप्य सामान्य अजीवत्व आस्रवत्व आदि की अपेक्षा जीव नास्ति है। स्वकीय विशेष अंशों से रहित द्रव्य सामान्य की अपेक्षा जीव अस्ति स्वरूप है, और वही जीव गुण के सामान्य गुणत्व की अपेक्षा नास्ति है, ये दो भंग हैं, अर्थात् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भेद विवक्षा करने पर द्रव्य, गुण और पर्याय भिन्न-भिन्न हैं, अतः द्रव्य सामान्य की अपेक्षा जीव अस्ति है, गुण विशेष की अपेक्षा नास्ति है। त्रिकालवर्ती अनन्त ज्ञानादि शक्ति के समूह रूप धर्म समुदाय की अपेक्षा जीव अस्ति स्वरूप है उससे व्यतिरेक (वर्तमानकालीन एक दो गुण वा पर्याय) रूप से उपलभमान रूप से जीव नास्ति है, ये दो भंग उत्पन्न होते हैं अर्थात् कोई जीव में ज्ञान गुण नहीं मानते हैं कोई अनन्त शक्ति नहीं, उनकी अपेक्षा कथन किया गया है कि जीव अनन्त गुणों का पिण्ड स्वरूप से अस्ति स्वरूप है। एक आदि गुण या आत्मा से भिन्न गुण की अपेक्षा जीव नास्ति स्वरूप है।