________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 270 कथंचित्तादात्म्यादिति / संख्येयवत्कथंचित्तदभिन्नायाः संख्यायाः सांशत्वादनेकस्वभावत्वसिद्धेः / एवं स्वभावस्यानेकत्वेपि तद्वतोद्रव्यस्य कथंचित्तदभिन्नस्यैकत्वानेकांशत्वमवक्तव्यत्वस्य सिद्धमंशस्य चानेकत्वेप्येकधर्मत्वमस्त्यवक्तव्यत्वादेरविरुद्धं, तथा श्रुतज्ञानेवभासमानत्वात् तद्बाधकाभावाच्च / त एतेस्तित्वादयो धर्मा जीवादिवस्तुनि सर्वसामान्येन तदभावेन च, विशिष्टसामान्येन तदभावेन, विशिष्टसामान्येन तदभावसामान्येन च, विशिष्टसामान्येन च द्रव्यसामान्येन गुणसामान्येन च धर्मसमुदायेन तद्व्यतिरेकेण च धर्मसामान्यसंबंधेन तदभावेन च धर्मविशेषसंबंधेन तदभावेन च निरूप्यंते / तत्रार्थप्रकरणसंभवलिंगौचित्यदेशकालाभिप्रायगम्यः शब्दस्यार्थ इत्यर्थाद्यनाश्रयणेभिप्रायमात्रवशवर्तिना सर्वसामान्येन च वस्तुत्वेन जीवादिरस्त्येव तदभावेन चावस्तुत्वेन नास्त्येवेति निरूप्यते / तथा श्रुत्युपात्तेन विशिष्टसामान्येन संख्येय (संख्यावाले) के समान कथञ्चित् संख्येय से अभिन्न संख्या के सांशत्व और अनेक स्वभावत्व की सिद्धि हो जाती है, इस प्रकार स्वभाव के अनेकपना होते हुए भी उस स्वभाव वाले और कथंचित् उस स्वभाव से अभिन्न द्रव्य को एकत्व होने के कारण अवक्तव्य धर्म के एक अंशपना सिद्ध है, और अंश के अनेकपना होने से अस्त्यवक्तव्य, नास्त्यवक्तव्य आदि धर्मों के एक धर्मपना सिद्ध है। इसमें कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार द्वादशांग श्रुतज्ञान में प्रतिभासित होते हैं और इस सप्तभंगी की सिद्धि में बाधक प्रमाण का अभाव है। ये जो अस्तित्व आदि धर्म हैं वे जीवादि वस्तु में सबके सामान्य रूप से और सामान्य के अभाव रूप से कहे जाते हैं। विशिष्ट सामान्य से और उसके अभाव से कहे जाते हैं- अर्थात् सामान्य अस्तित्व छहों द्रव्यों में है परन्तु जीवद्रव्य में अपना अस्तित्व है, पर अजीवादि रूपसे उस सामान्य का अभाव है- जीव में अवस्थित है। विशिष्ट सामान्य और विशिष्ट सामान्य का अभाव सामान्य से कहा जाता है। तथा विशिष्ट सामान्य और विशेषण के द्वारा दो भंग बनाये जाते हैं। सामान्य का सामान्य और विशिष्ट सामान्य के द्वारा दो भंग हो जाते हैं। द्रव्य सामान्य और गुण सामान्य के साथ दो भंग होते हैं। धर्म का समुदाय और उससे भिन्न कथन करने से दो भंग होते हैं। धर्म सामान्य का सम्बन्ध और उसके अभाव के द्वारा दो भंग होते हैं। धर्म का विशेष सम्बन्ध और उसका अभाव रूप कथन करने से दो भंग होते हैं। इस प्रकार दो-दो भंगों के साथ अनेक प्रकार के सप्त भंग कहे जा सकते हैं। उपरि कथित नव युगलों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-अर्थ (प्रयोजन), प्रकरण, संभव, लिंग, (हेतु) औचित्य, देश, काल और अभिप्रायों के द्वारा गम्य (जानने योग्य) शब्द का वाच्यार्थ होता है। इस प्रकार अर्थ (प्रयोजन) आदि के आश्रय के बिना भी अभिप्राय मात्र के वश होकर सर्व सामान्य (सर्व वस्तु में पाया जाने वाला) वस्तु की अपेक्षा जीवादि अस्ति स्वरूप ही हैं, तथा उस सर्व साधारण के अभावरूप तुच्छ अवस्तु की अपेक्षा जीवादिक पदार्थ नहीं है, ऐसा निरूपण किया जाता है, अर्थात् वस्तु सत्ता, आदि व्यापक सामान्य है और उसके विशेष होकर व्याप्य सामान्य जीवत्व पुद्गलत्व आदि है। अनेक मानव-तिर्यंचों में साधारण रूप से जीवत्व रहता है अतः जीवत्व विशेष रूप होता हुआ भी सामान्य है।