________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 266 द्वितीयादिभिः स्वगोचरैकैकधर्मात्मकस्य प्रकाशनात् कुतस्तेषामफलता ? कथं पुनरर्थस्यैकधर्मात्मकत्वं प्रधानं तथा शब्देनोपात्तत्वात् शेषानंतधर्मात्मकत्वमप्येवं प्रधानमस्त्विति चेन्न, तस्यैकतो वाक्यादश्रूयमाणत्वात् / कथं ततस्तस्य प्रतिपत्तिः अभेदवृत्त्याभेदोपचारेण वा गम्यमानत्वात् / तर्हि श्रूयमाणस्येव गम्यमानस्यापि वाक्यार्थत्वात् प्रधानत्वमन्यथा श्रूयमाणस्याप्यप्रधानत्वमिति चेन्न, * अग्निर्माणवक इत्यादि वाक्यैक्यार्थेनानैकांतात् / माणवकेग्नित्वाध्यारोपो हि तद्वाक्यार्थो भवति न च प्रधानमारोपितस्याग्नेरप्रधानत्वात्। तत्र तदारोपोपि प्रधानभूत एव तथा शब्देन विवक्षितत्वादिति चेत् , कस्तर्हि गौणः शब्दार्थोस्तु न कश्चिदिति के द्वारा मुख्यता से निज-निज विषय के एक-एक धर्म स्वरूप वस्तु का कथन किया गया है अतः नास्ति अवक्तव्य आदि छह वाक्यों के भी निष्फलता कैसे हो सकती है? अर्थात् नास्ति आदि छह भंग भी एकएक विषय को प्रधान रूप से कहते ही हैं। ___“अनन्त धर्मस्वरूप अर्थ की एक धर्मात्मकता प्रधान क्यों है ? क्योंकि उस प्रकार शब्द के द्वारा गृहीत शेष बचे हुए अनन्त धर्म भी प्रधान हो सकते हैं।" जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि उस अनन्तधर्मात्मक वस्तु का पूर्ण रूप से एक वाक्य के द्वारा कहकर सुनाया जाना नहीं हो सकता अर्थात् द्रव्य कहने पर केवल द्रव्यत्व का निरूपण होता है। वस्तुत्व कहने से वस्तु का, तत्त्व कहने से सत् (अस्तित्व) गुण का, प्रमेय कहने से प्रमेयत्व गुण का श्रोताओं के द्वारा ज्ञान किया जाता है। प्रश्न : एक धर्म के प्रतिपादक शब्द के द्वारा सर्वांग वस्तु की प्रतिपत्ति कैसे होती है ? उत्तर : अभेद वृत्ति या अभेद उपचार से एक शब्द के द्वारा भी पूर्ण वस्तु जान ली जाती है अर्थात् शब्द के द्वारा तो वस्तु का एक अंग ही सुना जाता है क्योंकि एक साथ वस्तु के सम्पूर्ण अंशों के कथन करने की शक्ति शब्दों में नहीं है परन्तु एक शब्द से श्रोता स्वकीय क्षयोपशम के अनुसार अनेक धर्मों को समझ लेता है। कोई कहता है कि इस प्रकार तो शब्द के द्वारा सुने गये अर्थ के समान व्युत्पत्ति के द्वारा गम्यमान अर्थ के भी वाक्यार्थपना होने से प्रधानत्व प्राप्त हो जायेगा, अन्यथा सुने गये अर्थ के भी प्रधानपना नहीं होगा। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि “अग्निर्माणवकः" यह बालक अग्नि है, इत्यादि वाक्यों के एक-एक अर्थ के द्वारा व्यभिचार दोष आता है। चंचल बालक में तेजस्विता होने के कारण अग्नित्व का अध्यारोप करना ही उस वाक्य का अर्थ होता है परन्तु वह अर्थ प्रधान नहीं है, क्योंकि आरोपित अग्नि को प्रधानपना प्राप्त नहीं हो सकता, अर्थात् शब्द के द्वारा सुना गया अर्थ प्रधान होता है और शेष जान लिया गया अर्थ गौण होता है। ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि बालक में अग्नि शब्द का कथन सुना गया होने पर चंचलता, उष्णता आदि के कारण आरोपित किया गया है अत: अग्नि शब्द आरोपित होने से सुना हुआ होकर भी गौण है। उस बालक में आरोपित अग्नि शब्द प्रधानभूत है क्योंकि शब्द के द्वारा विवक्षित (कथित) है, तो शब्द का गौण अर्थ क्या है ? शब्द का गौण (अप्रधान) अर्थ कुछ भी नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि “गौण और मुख्य के विषय में विवाद होने पर मुख्य का ही ज्ञान होता है"