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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 267 चेन्न, गौणमुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्ययवचनात् / घृतमायुरन्नं वै प्राणा इति कारणे कार्योपचारं, मंचाः क्रोशंतीति तात्स्थात्ताच्छब्दोपचारः / साहचर्याद्यष्टिः पुरुष इति, सामीप्यादृक्षा ग्राम इति च गौणं शब्दार्थं व्यवहरन् स्वयमगौणः शब्दार्थः सर्वोपीति कथमातिष्ठेत ? न चेदुन्मत्तः / गौण एव च शब्दार्थ इत्यप्ययुक्तं, मुख्याभावे तदनुपपत्तेः / कल्पनारोपितमपि हि सकलं शब्दार्थमाचक्षाणैरगोव्यावृत्तोर्थादर्थो बुद्धिनिर्भासी गोशब्दस्य मुख्योर्थस्ततोन्यो वाहीकादिर्गौण इत्यभ्युपगंतव्यं / तथा च गौणमुख्ययोर्वाक्यार्थयोः सर्वैः शब्दव्यवहारवादिभिरिष्टत्वान्न कस्यचित्तदपह्नवो युक्तोऽन्यत्र वचनानधिकृतेभ्यः / ननु यत्र शब्दादस्खलत्प्रत्ययः ऐसा कहा गया है अर्थात् गौण और मुख्य दोनों ही अर्थ शब्द के द्वारा कहे जाते हैं। जैसे “घृत ही आयु है"। “अन्न ही प्राण है।" इन वाक्यों में कारण में कार्य का उपचार किया गया है अर्थात् घृत का सेवन करना दीर्घ आयु का कारण है अत: कारण में आयु रूप कार्य का उपचार किया गया है। अन्न का सेवन प्राणों के स्थिर रहने का कारण है अतः अन्न रूप कारण में प्राणरूप कार्य का उपचार किया गया है। मंचा (मचान) चिल्लाते हैं। इस वाक्य में तात्स्थ मचान पर बैठे हुए मानव का मचान में आरोपण करके कह दिया जाता है कि मचान चिल्लाते हैं अर्थात्-तात्स्थ तत्रस्थ होने के कारण तत्पना यह आधार का आधेय में आरोप है। जैसे घी का घड़ा, घृत के संयोग से घड़ा घी का कहा जाता है। किसी वस्तु का साहचर्य से भी आरोपण कर लिया जाता है, जैसे लाठी के साहचर्य से पुरुष को यष्टि (लाठी) कह दिया जाता है। कहीं समीप अर्थ में वस्तु का आरोप कर लिया जाता है, जैसे वृक्ष ही ग्राम है" अर्थात् यहाँ ग्राम के अति समीप होने के कारण वृक्षों में ग्रामपने का उपचार कर लिया जाता है। इस प्रकार शब्द के गौण अर्थ का स्वयं व्यवहार करने वाला वादी ‘शब्द के अर्थ सभी प्रधान ही होते हैं,' इस प्रकार की व्यवस्था कैसे कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता, तथा शब्द का अर्थ मुख्य और गौण दोनों प्रकार का है फिर भी उसको मुख्य ही मानना, गौण स्वीकार नहीं करना, यह पागलपन की चेष्टा है। “शब्द का अर्थ गौण ही है" यह बौद्ध का कथन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि मुख्य के अभाव में गौणपना बन नहीं सकता अर्थात् मुख्य अग्नि के होने पर बालक में गौण रूप से अग्नि का आरोपण किया / जाता है। ___ सम्पूर्ण शब्दार्थों को कल्पना आरोपित ही कहने वाले बौद्धों के द्वारा ‘अगोव्यावृत्त' (गाय से भिन्न भैंस आदि से व्यावृत्त) गो स्वलक्षण रूपी जो परमार्थ से बुद्धि में प्रतिभासित हो रहा है उसे अवश्य मान लेना चाहिए। क्योंकि गौ शब्द का मुख्य अर्थ तो गाय है। और उससे भिन्न बोझा लादना, सीधापन आदि गौण अर्थ हैं तथा गौण और मुख्य वाक्यार्थ में लोक व्यवहार और शास्त्रीय अर्थ होने के कारण सभी वादियों को वाक्य के गौण तथा मुख्य दो अर्थ इष्ट हो जाते हैं अर्थात् शब्द के मुख्य और गौण दोनों अर्थ होते हैं, अत: गौण और मुख्य अर्थ मे किसी भी अर्थ का अपह्नव (लोप) करना उचित नहीं है। जो वचन बोलने के अधिकारी नहीं हैं (गूंगे, पागल, बालक आदि) उनको छोड़कर सभी वादी, प्रतिवादी को शब्द के मुख्य और गौण दो अर्थ मानना चाहिए।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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