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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 260 स्याच्छब्दादप्यनेकांतसामान्यस्यावबोधने / शब्दांतरप्रयोगोत्र विशेषप्रतिपत्तये // 55 // स्यादिति निपातोऽयमनेकांतविधिविचारादिषु बहुष्वर्थेषु वर्तते, तत्रैकार्थविवक्षा च स्यादनेकांतार्थस्य वाचको गृह्यते इत्येके / तेषां शब्दांतरप्रयोगोऽनर्थक: स्याच्छब्देनैवानेकांतात्मनो वस्तुनः प्रतिपादितत्वादित्यपरें, तेपि यद्यनेकांतविशेषस्य वाचके स्याच्छब्दे प्रयुक्ते शब्दांतरप्रयोगमनर्थकमाचक्षते तदा न निवार्यते, शब्दांतरत्वस्य स्याच्छब्देन कृतत्वात् / अनेकांतसामान्यस्य तु वाचके तस्मिन् प्रयुक्ते जीवादिशब्दांतरप्रयोगो नानर्थकस्तस्य तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थत्वात् कस्यचित्सामान्येनोपादाने पि विशेषार्थिना विशेषोऽनुप्रयोक्तव्यो वृक्षशब्दावृक्षत्वसामान्यस्योपादानेपि धवादितद्विशेषार्थितया धवादिशब्दविशेषवदिति वचनात् / भवतु नाम द्योतको वाचकश्च स्याच्छब्दोऽनेकांतस्य तु प्रतिपदं प्रतिवाक्यं वा श्रूयमाणः समये लोके च कुतस्तथा प्रतीयत इत्याह; स्याद् शब्द के द्वारा अनेकान्त सामान्य का ज्ञान हो जाने पर भी यहाँ विशेष रूप से धर्मों की प्रतिपत्ति (ज्ञान) करने के लिए अस्ति, नास्ति आदि शब्दान्तरों का प्रयोग करना आवश्यक है।॥५५॥ 'स्यात्' यह तिङन्त प्रतिरूपक निपात अनेकान्त, विधि (प्रेरणा करना) विचार आदि बहुत से अर्थों में रहता है। उन अनेक अर्थों में से एक समय एक अर्थ की विवक्षा होती है अत: स्यात् शब्द अनेक अर्थों का वाचक ग्रहण किया गया है। इस प्रकार एक वादी कहता है। कोई दूसरा वादी कहता है कि यदि एक 'स्यात्' शब्द के द्वारा अनेक धर्मात्मक सम्पूर्ण वस्तु का प्रतिपादन हो जाता है तो उनके सिद्धान्त में शब्दान्तरों का प्रयोग करना व्यर्थ है ? इन दोनों वादियों का समाधान करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि यदि वे भी (वादी) विशेषरूप से अनेकान्त को कहने वाले स्यात् शब्द का प्रयोग करने पर शब्दान्तर के प्रयोग को व्यर्थ कहते हैं तब तो उनका निवारण (निरोध) नहीं हो सकता। उनको कहते हुए रोक नहीं सकते क्योंकि शब्दान्तरों से होने योग्य प्रयोजन को स्यात् शब्द ने कर दिया है (अर्थात् स्यात् शब्द के द्वारा शब्दान्तरों का कार्य हो जाने से शब्दान्तरों का कथन करना व्यर्थ है ) परन्तु सामान्य रूप से अनेकान्त वाचक स्यात् शब्द का प्रयोग करने पर शब्दान्तर (अस्ति नास्ति आदि) का प्रयोग करना व्यर्थ नहीं है क्योंकि उन शब्दान्तरों का प्रयोग स्यात् शब्द की विशेषता को जानने के लिए है। किसी भी वस्तु का सामान्य रूप से कथन करने पर उसके विशेष को जानने के इच्छुक पुरुष के द्वारा उस वस्तु के विशेष का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है, अर्थात् विशेषार्थी को विशेष का प्रयोग करना ही चाहिए। जैसे वृक्ष शब्द से वृक्षत्व सामान्य का ग्रहण हो जाने पर भी उस वृक्ष के विशेष धव, खदिर आदि के अभिलाषी पुरुष के द्वारा धव आदि विशेष शब्दों का प्रयोग ना आवश्यक होता है। उसी प्रकार प्रकरण में स्यात् पद के साथ विशेष पदों का उच्चारण करना आवश्यक होता है। जैसे स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति इत्यादि। यह ‘स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक एवं वाचक हो सकता है (इसमें कोई आपत्ति नहीं है) परन्तु प्रत्येक पद और वाक्य स्यात्पद से युक्त लोक में और शास्त्र में सुनाई नहीं दे रहा है? अतः स्यात् शब्द की प्रतीति कैसे हो सकती है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं:
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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