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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 261 सोप्रयुक्तोपि वा तज्जैः सर्वत्रार्थात्प्रतीयते। यथैवकारो योगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः // 56 // यथा चैत्रो धनुर्धरः पार्थो धनुर्धरः नीलं सरोजं भवतीत्यत्रायोगस्यान्ययोगस्यात्यंतयोगस्य च व्यवच्छेदायाप्रयुक्तोप्येवकारः प्रकरणविशेषसामर्थ्यात्तद्विद्भिरवगम्यते, तस्यान्यत्र विशेषणेन क्रियया च सह प्रयुक्तस्य तत्फलत्वेन प्रतिपन्नत्वात् / तथा सर्वत्र स्यात्कारोपि सर्वस्याने कांतात्मकत्वव्यवस्थापनसामर्थ्यादेकांतव्यवच्छेदाय किं न प्रतीयते / न हि कश्चित्पदार्थो वाक्यार्थो वा सर्वथैकांतात्मकोस्ति प्रतीतिविरोधात् / कथंचिदेकांतात्मकस्तु सुनयापेक्षोनेकांतात्मक एव ततो युक्तः प्रमाणवाक्ये नयवाक्ये च सप्तविकल्पे स्यात्कारस्तदर्थं शब्दांतरं वा श्रूयमाणं गम्यमानं वावधारणवत् / किं पुनः प्रमाणवाक्यं किं वा लौकिक व्यवहार में या शास्त्र में प्रत्येक पद वा वाक्य में स्यात् शब्द का प्रयोग नहीं होने पर भी शास्त्रों को जानने वाले पुरुषों के द्वारा सर्वत्र अर्थ से स्यात् पद की प्रतीति कर ली जाती है। उसी प्रकार अयोग, अन्य योग और अत्यन्त योग का व्यवच्छेद करना जिसका प्रयोजन है ऐसे एवकार का प्रयोग बिना किये ही समझ लिया जाता है॥५६॥ जैसे 'चैत्र धनुर्धर है' इस वाक्य में चैत्र धनुष को ही धारण करता है, धनुषधारी ही है। इस प्रकार धनुष के अयोग का व्यवच्छेद करने वाला एवकार विशेष प्रकरण के सामर्थ्य से जान लिया जाता है। तथा 'पार्थो धनुर्धरः' अर्जुन धनुष का धारी है, इस वाक्य में एव नहीं लगाया है फिर भी अन्य योग (अन्य व्यक्तियों में धनुष धारी पने) का व्यवच्छेद करने वाला एवकार प्रकरण के अनुसार ग्रहण कर लिया जाता है कि अनेक योद्धाओं के मध्य में अर्जुन ही धनुषधारी है। इस प्रकार विशेष्य या उद्देश्य के साथ लगे हुए एवकार से अन्ययोग की व्यावृत्ति हो जाती है। - “नील सरोज होता है" इस वाक्य में नीलकमल होता ही है। इस प्रकार कमल में नीलत्व के अत्यन्त अयोग को व्यवच्छेद करने वाला एवकार प्रकरण से जान लिया जाता है। “नीलं सरोज भवत्येव" इस वाक्य में क्रिया के साथ ‘एव' लगाने से नीलकमल के सर्वथा न होने की व्यावृत्ति की गयी है। इस प्रकार अयोग, अन्ययोग और अत्यन्तायोग के व्यवच्छेद के लिए अप्रयुक्त भी एवकार प्रकरण विशेष के सामर्थ्य से विद्वानों के द्वारा जान लिया जाता है क्योंकि अन्य स्थलों पर विशेषण, विशेष्य तथा क्रिया के युक्त किये गए उस एवकार का उन अयोग व्यवच्छेद, अन्ययोग व्यवच्छेद और अत्यन्तायोग व्यवच्छेद रूप फलत्व के द्वारा प्रतिपन्न (व्याप्त) होने से ज्ञात है (जाना जा चुका है)। इसी प्रकार सभी वाक्यों में अप्रयुक्त भी स्यात्कार शब्द सभी पदार्थों की अनेकान्तात्मक व्यवस्था के सामर्थ्य से एकान्त का व्यवच्छेद करने के लिए क्यों नहीं प्रतीत होता है अर्थात् एवकार के समान स्यात्कार पद भी बिना उच्चारण किये भी प्रतीत होता है क्योंकि किसी पदार्थ का या वाक्य का अर्थ सर्वथा एकान्त स्वरूप नहीं है क्योंकि सर्वथा एकान्त मानना प्रतीति विरुद्ध है। सुनयों की अपेक्षा से अर्पित किया गया कथञ्चित् एकान्त स्वरूप पदार्थ वा वाक्यार्थ अनेकान्त स्वरूप ही है अर्थात् सुनय अन्य धर्मों की अपेक्षा रखते हैं इसलिए अस्ति, नास्ति आदि सात भेद वाले प्रमाण बोध वाक्य और नय वाक्य में स्यात्' इस शब्द का प्रयोग करना उपयुक्त है इसलिए अवधारणा करने वाले एवकार के समान स्यात्पद को भी साथ
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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