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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 259 प्रतिगुणं भेदात् तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसंगात् / संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गिभेदात् तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् / शब्दस्य च प्रतिविषयं नानात्वात् सर्वगुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेः शब्दांतरवैफल्यात् / तत्त्वतोस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदवृत्तेरसंभवे कालादिभिर्भिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते / तदेवाभ्यामभेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यामेकेन शब्देनैकस्य जीवादिवस्तुनोऽनंतधर्मात्मकस्योपात्तस्य स्यात्कारो द्योतकः समवतिष्ठते॥ पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा नाना धर्मों का आश्रयभूत द्रव्य नामक अर्थ भी भिन्न-भिन्न है। अन्यथा (भिन्न-भिन्न आधार के अभाव में) एक द्रव्य के नाना गुणों को आश्रय देने का विरोध है अर्थात् अर्थ के भिन्न-भिन्न होने से उन धर्मों में अर्थ की अपेक्षा भी अभेद वृत्ति नहीं है अर्थात् भेदवृत्ति है। ____ नाना गुण रूप सम्बन्धियों के भेद से सम्बन्ध का भी पर्यायार्थिक नय से भेद देखा जाता है क्योंकि अनेक सम्बन्धियों के द्वारा एक वस्तु में एक सम्बन्ध घटित नहीं होता है। (जैसे सोमदत्त के पिता का सम्बन्ध भाई के साथ घटित नहीं होता है) अत: पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनेक धर्मों में सम्बन्ध का अभेद भी नहीं है। ___उन धर्मों के द्वारा किया गया उपकार भी पृथक्-पृथक् प्रत्येक वस्तु में नियत होकर अनेक स्वरूप है। जैसे ज्ञान का उपकार वस्तु को साकार जानना है और दर्शन का उपकार वस्तु का निराकार अवलोकन है इसलिए एक उपकार की अपेक्षा से होने वाली अनेक गुणों में अभेद वृत्ति घटित नहीं हो सकती। प्रत्येक गुण की अपेक्षा गुणी का देश भी भिन्न-भिन्न है यदि गुणों के भेद से गुण वाले देश का भेद नहीं माना जायेगा तो सर्वथा भिन्न दूसरे पदार्थों के गुणों का भी गुणी देश अभिन्न हो जायेगा और संसर्ग का तो प्रति संसर्ग के भेद से (भेद होने पर भी) उन संसर्ग का अभेद माना जायेगा तो संसर्गियों के भेद होने का विरोध है अतः संसर्ग से भी अभेद वृत्ति नहीं हो सकती। प्रत्येक विषय की अपेक्षा वाचक शब्द के भी नानापना है। यदि सर्व गुणों को एक शब्द द्वारा ही वाच्य माना जायेगा तब तो सम्पूर्ण अर्थों को भी एक शब्द द्वारा निरूपण करने का प्रसंग आयेगा अत: ऐसी दशा में भिन्न-भिन्न पदार्थों के लिए पृथक्-पृथक् शब्दों का बोलना व्यर्थ होगा। ___ अतः शब्द के द्वारा अभेद वृत्ति नहीं है वस्तुतः अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों का एक वस्तु में अभेदं वृत्ति का होना असंभव है परन्तु काल, आत्मरूपता आदि के द्वारा भिन्न-भिन्न रूप धर्मों का अभेद रूप से उपचार किया जाता है अर्थात् पर्यायार्थिक नय से नाना पर्यायों में भेद है क्योंकि एक पर्याय दूसरी पर्याय स्वरूप नहीं है, फिर भी एक वस्तु या द्रव्य की अनन्त पर्यायों में अभेद का व्यवहार कर लिया जाता है अत: इन अभेद वृत्ति या अभेद उपचार से एक शब्द के द्वारा ग्रहण किये गये अनन्त धर्मात्मक एक जीव आदि वस्तु का कथन किया गया है। उन अनेक धर्मों का द्योतक स्यात्कार निपात व्यवस्थित है अर्थात् विकलादेश के द्वारा क्रम से अनेक धर्मों का कथन करने पर या सकलादेश के द्वारा अनन्त धर्मों का युगपत् कथन करने पर अनेकान्त का द्योतक स्यात् पद का प्रयोग अवश्य करना पड़ेगा।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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