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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 257 यदास्तित्वादिधर्माणी कालादिभिर्भेदविवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्यभावात् क्रमः / यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देनैकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकतामापन्नस्यानेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवाद्यौगपद्यं। के पुन: कालादयः ? काल: आत्मरूपं अर्थः संबंध: उपकारो गुणिदेश: संसर्गः शब्द इति / तत्र स्याज्जीवादि वस्तु अस्त्येव इत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानंतधर्मा वस्तुन्येकत्रेति, तेषां कालेनाभेदवृत्तिः / यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यानंतगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्तिः / य एव चाधारोर्थो द्रव्याख्योस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनाभेदवृत्तिः / य एवाविष्वग्भावः कथंचित्तादात्म्यलक्षणः संबंधोस्तित्वस्य स एवाशेषविशेषाणामिति संबंधेनाभेदवृत्तिः / य एव चोपकारोस्तित्वेन स्वानुरक्तकरणं स एव शेषैरपि गुणैरित्युपकारेणाभेदवृत्तिः / य एव च गुणिदेशोस्तित्वस्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनाभेदवृत्तिः। य एव ___उत्तर : जिस समय अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों की कालादि के द्वारा विवक्षा है तब एक शब्द की अनेक अर्थों को समझाने में (ज्ञान कराने में) शक्ति का अभाव होने से क्रम से कथन किया जाता है। ___जब उन्हीं धर्मों का काल आदि के द्वारा अभेद सम्बन्ध से आत्मस्वरूप का कथन किया जाता है तब एक शब्द के द्वारा धर्म को समझाने की मुख्यता से एक धर्म के साथ तदात्मकता को प्राप्त अनेक अशेष धर्मों के स्वरूप का प्रतिपादन करना संभव होने से युगपत् कहा जाता है अर्थात् भेद विवक्षा में वस्तु के एक-एक धर्म का क्रम किया जाता है और अभेद विवक्षा में एक शब्द द्वारा अनेक धर्मात्मक वस्तु का एक ही समय में युगपत् निरूपण होता है, इसी से नय और प्रमाण का भेद सिद्ध होता है। कालादिक के द्वारा द्रव्य, गुण और पर्यायों में भेद और अभेद का कथन प्रश्न : कालादि पुन: क्या हैं ? उत्तर : काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इस प्रकार आठ हैं, उन आठों में जीवादिक वस्तु कथंचित् अस्ति स्वरूप ही है उसमें जीवकाल रूप से अस्ति है। जीवस्वरूप एक वस्तु में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि सम्पूर्ण अनन्त धर्मों का भी वही काल है क्योंकि काल स्वरूप से उन धर्मों की अभेद रूप से वृत्ति (सम्बन्ध) है अर्थात् सर्व अस्तित्व आदि गुण का आत्मरूप निजस्वरूप है वही अभेद वृत्ति से अन्य अनन्त गुणों का भी आत्मस्वरूप है, अर्थात् आत्मस्वरूप से अनन्त धर्मों की परस्पर में अभेद वृत्ति है। जो अस्तित्व गुण का आधारभूत द्रव्य नामक पदार्थ है वही अर्थ (द्रव्य) अभेद विवक्षा से अन्य पर्यायों का आश्रय है, अर्थात् एक ही द्रव्य के आधार में अनन्त गुण आधेय रूप से रहते हैं, जो ही अपृथक् भूत कथंचित् तादात्म्यलक्षण अस्तित्व गुण का सम्बन्ध है, वही अपृथक्भूत सम्बन्ध अभेदवृत्ति से सम्पूर्ण विशेष अंशों (पर्यायों) का भी है। अर्थात् सम्बन्ध के कारण ही सम्पूर्ण धर्मों का वस्तु के साथ अभेद है। जो ही स्वकीय अस्तित्व से वस्तु को अपने अनुरूप कर देने रूप स्वभाव वाला उपकार है अर्थात् जो वस्तु के अस्तित्व स्वरूप को अक्षुण्ण रखने वाला उपकार है, वही उपकार अशेष सम्पूर्ण गुणों को भी स्वकीय-स्वकीय अनुरूप करने वाला उपकार है, अर्थात् एक ही उपकार जैसे अस्तित्व धर्म को वस्तु के
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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