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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 255 नन्वस्तित्वसामान्येनं जीवस्य व्याप्तत्वात् पुद्गलाद्यस्तित्वविशेषैरव्याप्तेर्न तत्प्रसक्तिः कृतकस्यानित्यत्वसामान्येन व्याप्तस्यानित्यत्वविशेषाप्रसक्तिवत् / ततोनर्थकस्तन्निवृत्तये स्यात्प्रयोग इति चेन्न, अवधारणवैयर्थ्यप्रसंगात् / स्वगतेनास्तित्वविशेषेण जीवस्यास्तित्वावधारणात् प्रतीयते कृतकस्य स्वगतानित्यत्वविशेषेणानित्यत्ववदिति चेन्न, स्वगतेनेति विशेषणात् परगतेन नैवेति संप्रत्ययादवधारणानर्थक्यस्य तदवस्थत्वात् / न चानवधारणकं वाक्यं युक्तं, जीवस्यास्तित्ववन्नास्तित्वस्याप्यनुषंगात् कृतकस्य नित्यत्वानुषंगवत् / तत्रास्तित्वस्यानवधृतत्वात् कृतकेनानित्यत्वानवधारणे नित्यत्ववत् / सर्वेण हि प्रकारेण जीवादेरस्तित्वाभ्युपगमे तन्नास्तित्वनिरासे वावधारणं फलवत्स्यात् / यथा कृतकस्य सर्वेणानित्यत्वेन शब्दघटादिगतेनानित्यत्वाभ्युपगमे तन्नित्यत्वनिरासे च नान्यथा, तथावधारणसाफल्योपगमे च जीवादिरस्तित्वसामान्येनास्ति, न पुनरस्तित्वविशेषेण पुद्गलादिगतेनेति प्रतिपत्तये युक्तः स्यात्कारप्रयोगस्तस्य तादगर्थद्योतकत्वात् / ननु च योस्ति स स्वायत्तद्रव्यक्षेत्रकालभावैरेव शंका : सामान्य अस्तित्व से जीव की व्याप्ति है और पुद्गलादि अस्तित्व विशेष के द्वारा जीव के साथ व्याप्ति नहीं है इसलिए जीव के पुद्गलादि के साथ अस्तित्व होने का प्रसंग नहीं आता है। जैसे सामान्य अनित्यत्व के साथ व्याप्त कृतकत्व का विशेष अनित्यत्व के साथ व्याप्त होने का प्रसंग नहीं आता है। इसलिए अनिष्ट (सर्वसत्त्व) की निवृत्ति के लिए स्यात् शब्द का प्रयोग करना व्यर्थ है। उत्तर : ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर तो अवधारणा के लिए एवकार के प्रयोग करने में भी व्यर्थ का प्रसंग आएगा अर्थात् जब अजीवादि का अस्तित्व ही नहीं है तब ‘जीव ही है' ऐसा कहने से क्या प्रयोजन है ? . “स्वगत अस्तित्व विशेषण से जीव के अस्तित्व की अवधारणा होने से प्रतीत हो रहा है। जैसे स्वगत अनित्यत्व विशेषण से कृतकत्व का अनित्यत्व प्रतीत होता है।" ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि स्वगत अस्तित्व विशेषण से परगत अस्तित्व के निषेध रूप से जब प्रतीति (ज्ञान) हो जाती है तब अवधारणा करने का व्यर्थपना जैसे का तैसा ही रह जाता है। इसलिए अवधारणा रहित वाक्य बोलना युक्त नहीं है। अन्यथा (यदि ऐसा नहीं है तो) जैसे जीव के अस्तित्व का विधान है वैसे ही नास्तित्व के विधान का भी प्रसंग आयेगा जैसे कि घट पट आदि कृतकत्व नियम न करने पर नित्यत्व का प्रसंग आता है। जिस प्रकार कृतकत्व के साथ अनित्यत्व की अवधारणा नहीं करने पर उनके नित्यत्व का प्रसंग आता है, उसी प्रकार अस्तित्व की अनवधारणा करने पर जीव के अन्य पदार्थों की अपेक्षा से भी अस्तित्व का प्रसंग आयेगा। सभी प्रकार से जीव आदि के अस्तित्व को स्वीकार करने पर और अजीव आदि नास्तित्व का निराकरण करने पर अवधारणा करना सफल हो जाता है। जिस प्रकार कृतकत्व का शब्द, घट, पट आदिगत सभी प्रकार के अनित्य के साथ अनित्यत्व को स्वीकार करने पर और नित्यत्व का निरास करने पर एवकार का प्रयोग करना सार्थक होता है। अन्यथा (अस्तित्व के विधान और नास्तित्व के निराकरण के बिना एवकार का प्रयोग करना) सार्थक नहीं है। ___ तथा अवधारणा की सफलता को स्वीकार करने पर सामान्य अस्तित्व की अपेक्षा जीवादि अस्ति रूप हैं और पुद्गलादिगत विशेष अस्तित्व की अपेक्षा नास्ति स्वरूप हैं। इस स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति और पर चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति का परिज्ञान कराने के लिए स्यात् पद का प्रयोग करना युक्त (सार्थक)
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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