________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 254 तथा च जीवोप्यजीवसत्त्वे नास्तीति व्याप्तं स्वप्रतियोगिनो नास्तित्वस्यैवास्तीति पदेन व्यवच्छेदात् जीव एवास्तीत्यवधारणे तु भवेदजीवनास्तिता / नैव सेष्टा प्रतीतिविरोधात् / ततः कथमस्त्येव जीव इत्यादिवत्सदेव सर्वमिति वचनं घटत इत्यारेकायामाह;सर्वथा तत्प्रयोगेपि सत्त्वादिप्राप्तिविच्छिदे। स्यात्कारः संप्रयुज्येतानेकांतद्योतकत्वतः // 54 // ___स्यादस्त्येव जीव इत्यत्र स्यात्कार: संप्रयोगमर्हति तदप्रयोगे जीवस्य पुद्गलाद्यस्तित्वेनापि सर्वप्रकारेणास्तित्वप्राप्तेविच्छेदाघटनात् तत्र तथाशब्देनाप्राप्तित्वात् / प्रकरणादेर्जीवे पुद्गलाद्यस्तित्वव्यवच्छेदे तु तस्याशब्दार्थत्वं तत्प्रकरणादेरशब्दत्वात् / न चाशब्दादर्थप्रतिपत्तिर्भवंती शाब्दी युक्तातिप्रसंगात् / तथा जीव भी अजीव के सत् सामान्य से व्याप्त है अर्थात् सत्त्व सामान्य की अपेक्षा जीव और अजीव समान हैं। परपक्ष : जीव अस्ति ही है इस प्रकार एवकार पद से स्वकीय अस्तित्व के प्रतियोगी नास्तित्व की व्यावृत्ति हो जाती है परन्तु जीव में अजीव के सत्त्व की व्यावृत्ति नहीं हो सकती। यदि जीव ही है ऐसी अवधारणा करोगे तो अजीव पद की नास्ति हो जाएगी परन्तु अजीव पद की सर्वथा नास्ति इष्ट नहीं है क्योंकि अजीव पदार्थ का अभाव प्रतीति के विरुद्ध है अर्थात् घट-पट शरीर आदि पदार्थ ज्ञानगोचर हो रहे हैं अतः जीव ही है, अजीव ही है, इत्यादि वचनों के समान सर्व वस्तु 'सत्' स्वरूप ही है, ऐसा प्रयोग करना कैसे घटित हो सकता है ? अर्थात् जैसे 'जीव ही है' यह घटित नहीं हो सकता वैसे ही सर्व वस्तु सत्स्वरूप. ही है ऐसा घटित नहीं हो सकता। इस प्रकार की शंका होने पर जैनाचार्य उत्तर देते हैं: उस एवकार का प्रयोग करने पर भी सर्वथा (एकान्त रूप से) सत्त्वादि की प्राप्ति का विच्छेद करने के लिए वाक्य में स्यात्कार शब्द का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि 'स्यात्' शब्द ही अनेकान्त का द्योतक है॥५४॥ ___ “स्यादस्ति एव जीवः" कथञ्चित् जीव पदार्थ अस्ति स्वरूप है। इस वाक्य में ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग करना योग्य है। यदि इस पद में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग नहीं किया जायेगा तो जीव के पुद्गल, आकाश आदि के अस्तित्व के द्वारा भी सभी प्रकार से अस्ति होने का प्रसंग आएगा अर्थात् स्यात् पद के प्रयोग के बिना जैसे जीव अपने स्वरूप से अस्ति है, वैसे ही अन्य पुद्गलादि स्वरूप से भी जीव अस्तित्व को प्राप्त होगा और ऐसा होने पर जीव को पुद्गल आदि से पृथक् करना भी घटित नहीं हो सकेगा परन्तु उस प्रकार शब्द के द्वारा सत्त्व आदि की प्राप्ति नहीं होती है। अर्थात् जीव का अस्तित्व, पुद्गल के अस्तित्व से नहीं है। यदि प्रकरण, अवसर, योग्यता आदि से जीव में पुद्गल आदि के अस्तित्व की व्यावृत्ति करोगे तो वह शब्द का वाच्यार्थ नहीं हो सकता क्योंकि उन प्रकरण आदि के द्वारा प्राप्त अर्थ शब्द का वाच्य नहीं हो सकता और वाचक शब्द के बिना होने वाली अर्थ की प्रतिपत्ति ‘शब्द से हुई है' ऐसा कहना युक्तिसंगत कैसे हो सकता है क्योंकि उसमें अतिप्रसंग दोष आता है।